मतदान का अधिकार और मतदान की स्वतंत्रता अलग-अलग, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दी दलील
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि मतदान का अधिकार और मतदान की स्वतंत्रता अलग हैं; एक सांविधिक तो दूसरा मौलिक अधिकार है। मामला निर्विरोध चुनावों से जुड़ा है।
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी है कि “मतदान का अधिकार” और “मतदान की स्वतंत्रता” दोनों अलग-अलग अवधारणाएं हैं। केंद्र के अनुसार, मतदान का अधिकार केवल एक सांविधिक अधिकार (statutory right) है, जबकि मतदान की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत आने वाले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (freedom of speech and expression) का हिस्सा है।
यह दलील उस याचिका के जवाब में दी गई है जिसमें कहा गया है कि ‘निर्विरोध चुनाव (uncontested elections)’ असंवैधानिक हैं और वे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। याचिका में मांग की गई है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 53(2) तथा चुनाव नियम, 1961 के नियम 11 और उनसे जुड़े फॉर्म 21 व 21B को असंवैधानिक घोषित किया जाए।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि जब किसी निर्वाचन क्षेत्र में केवल एक ही उम्मीदवार रह जाता है, तो उसे निर्विरोध विजेता घोषित कर दिया जाता है, जिससे मतदाताओं को मतदान का अवसर ही नहीं मिलता। यह स्थिति, उनके अनुसार, नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करती है क्योंकि वे अपनी राय मतदान के माध्यम से व्यक्त नहीं कर पाते।
केंद्र ने इस पर जवाब देते हुए कहा कि मतदान का अधिकार कानून द्वारा प्रदान किया गया है, न कि यह कोई मौलिक अधिकार है। हालांकि, मतदान की स्वतंत्रता—यानि कि व्यक्ति का यह निर्णय कि वह मतदान करे या न करे—संविधानिक स्वतंत्रता के दायरे में आती है।
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