शेख़ हसीना को मानवता-विरोधी अपराधों में मौत की सज़ा: बांग्लादेश की राजनीति के लिए ऐतिहासिक मोड़
ढाका के विशेष ट्राइब्यूनल ने पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को 2024 के छात्र आंदोलन दमन में मानवता-विरोधी अपराधों का दोषी पाया और मौत की सज़ा सुनाई, जिससे राजनीतिक संकट गहराया।
सज़ा का ऐलान: इतिहास का एक कड़वा मोड़
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को ढाका में अंतरराष्ट्रीय अपराध ट्राइब्यूनल-1 ने मानवता-विरोधी अपराधों में दोषी ठहराते हुए मौत की सज़ा सुना दी। यह वही ट्राइब्यूनल है जिसे 2010 में खुद हसीना ने 1971 युद्ध अपराधों की जांच के लिए स्थापित किया था। अब विडंबना यह है कि वही मंच उन्हें कठघरे में खड़ा कर रहा है — और वो भी उनकी अनुपस्थिति में, क्योंकि वह भारत में निर्वासन में रह रही हैं।
फैसले के अनुसार, 2024 में छात्र आंदोलन के दौरान ड्रोन, हेलीकॉप्टर और घातक हथियारों के इस्तेमाल का आदेश हसीना ने खुद दिया। चांकरपुल और अशुलिया में 12 प्रदर्शनकारियों की मौत को न्यायालय ने “उनके आदेश का प्रत्यक्ष परिणाम” बताया। अदालत का कहना था कि हसीना ने हिंसा रोकने के बजाय उसे बढ़ावा दिया, जो मानवता-विरोधी अपराधों की श्रेणी में आता है।
उनके साथ चले मुकदमे में पूर्व गृह मंत्री असादुज्ज़मान ख़ान को भी मौत की सज़ा दी गई है। वहीं पूर्व पुलिस प्रमुख चौधरी अब्दुल्ला अल-मामुन को सहयोग करने के कारण पांच वर्ष की सज़ा सुनाई गई।
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ट्राइब्यूनल ने सरकार को मृतकों व घायल प्रदर्शनकारियों को “उचित मुआवज़ा” देने का निर्देश भी दिया, हालांकि यह स्पष्ट नहीं कि भुगतान की जिम्मेदारी किस पर आएगी।
फैसला अब सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिया जा सकता है, लेकिन इससे राजनीतिक तूफान थमने वाला नहीं है।
क्या भारत हसीना को सौंपेगा? सवाल का जवाब अभी धुंधला है
सबसे बड़ा सवाल यही है—क्या भारत हसीना और ख़ान को बांग्लादेश को सौंपेगा?
दोनों देशों के बीच 2013 का प्रत्यर्पण समझौता भले मौजूद है, पर उसमें साफ़ लिखा है कि “राजनीतिक प्रकृति” के अपराधों में प्रत्यर्पण रोका जा सकता है। हसीना भारत के सबसे पुराने और भरोसेमंद राजनीतिक साझेदारों में रही हैं। पिछले एक साल में ढाका-दिल्ली रिश्तों में तनाव रहा है, इसलिए भारत का हसीना को सौंपना लगभग असंभव माना जा रहा है।
फिर भी, अंतरराष्ट्रीय संबंध विशेषज्ञों के एक वर्ग का मत है कि ट्राइब्यूनल का स्पष्ट और कठोर फैसला ढाका की कूटनीतिक स्थिति को मज़बूत करता है। बांग्लादेश अब भारत से कानूनी और नैतिक आधार पर ज़्यादा दृढ़ता से प्रत्यर्पण की मांग कर सकता है।
लेकिन यथार्थ यह कहता है — दिल्ली यह जोखिम लेगी, इसकी संभावना बेहद कम है।
हसीना की प्रतिक्रिया: “राजनीतिक बदले की कार्रवाई”
78 वर्षीय हसीना ने फैसले को “राजनीतिक रूप से प्रेरित” बताया। उनका कहना है कि उन्हें ऐसे ट्राइब्यूनल ने दोषी ठहराया है जिसका कोई लोकतांत्रिक जनादेश नहीं है और जिसका उद्देश्य विपक्ष को खत्म करना है।
उन्होंने साफ कहा कि वह “उचित अदालत में” मुकदमे का सामना करने को तैयार हैं — लेकिन मौजूदा व्यवस्था उन्हें निष्पक्ष मौका नहीं दे सकती।
कौन हैं शेख़ हसीना? राजनीति, सत्ता और विवादों की लंबी कहानी
हसीना सिर्फ एक राजनीतिज्ञ नहीं, बल्कि बांग्लादेश के इतिहास का केंद्रीय पात्र रही हैं।
• वह बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीबुर्रहमान की बेटी हैं।
• 1975 में परिवार की हत्या के बाद वह देश से बाहर रहीं।
• 1990 के लोकतांत्रिक आंदोलन में उनकी भूमिका निर्णायक थी।
• 1996 और फिर 2009 से लगातार 15 साल तक प्रधानमंत्री रहीं।
पर 2024 के छात्र आंदोलन में हुई अभूतपूर्व हिंसा ने उनकी राजनीतिक विरासत पर गहरी चोट पहुंचाई। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि करीब 1,400 लोग मारे गए — एक लोकतांत्रिक देश के लिए भयावह संख्या।
छात्र आंदोलन क्यों फटा? और कैसे हिंसा में बदल गया?
जुलाई 2024 में हाई कोर्ट द्वारा 1971 के युद्धवीरों के वंशजों के लिए सिविल सेवाओं में आरक्षण बहाल करने के आदेश के बाद छात्रों का गुस्सा फूटा।
सरकार ने इंटरनेट बंद किया, सेना तैनात की और छात्र विंग चात्रा लीग ने भी विरोधकारियों पर हमले किए।
अदालत में पेश सबूतों—फोन कॉल रिकॉर्डिंग, फायरिंग लॉग, मेडिकल रिपोर्ट और गवाहों—ने दिखाया कि प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश सीधे शीर्ष नेतृत्व से आया था।
क्या ट्राइब्यूनल निष्पक्ष है? HRW की सख्त आलोचना
मानवाधिकार संगठनों सहित HRW ने लंबे समय से ICT की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं—
• सबूत इकट्ठा करने में खामियां
• न्यायाधीश-अभियोजक के बीच मिलीभगत
• गवाहों को धमकाना
• लापता किए गए परिवारजन
• मृत्युदंड का इस्तेमाल
फिर भी, वर्तमान अंतरिम सरकार मानती है कि अगर न्याय नहीं हुआ तो 2024 की हिंसा का घाव कभी नहीं भरेगा।
आगे क्या होगा? राजनीति में भूकंप तय है
यह फैसला बांग्लादेशी राजनीति में एक बड़े मोड़ का संकेत देता है।
Awami League भले बैन हो चुकी है, पर उसका जमीनी नेटवर्क बेहद मजबूत है। फैसले के बाद विरोध, हिंसा और अस्थिरता की आशंका बहुत ज्यादा है।
दूसरी तरफ, 1.5 करोड़ प्रवासी बांग्लादेशियों को पहली बार पोस्टल वोटिंग का अधिकार मिला है। वे कुल मतदाताओं का लगभग 10% हैं — यानी 2026 के चुनावों में उनकी भूमिका गेम-चेंजर बन सकती है।
कुल मिलाकर, आने वाले कुछ महीने बांग्लादेश के लिए रोलर-कोस्टर की तरह होंगे — उथल-पुथल भरे, अनिश्चित और राजनीतिक रूप से विस्फोटक।
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