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गवर्नेंस से पावर मिलता है क्या? — 1992 में लालू यादव और नीतीश कुमार की ऐतिहासिक जुदाई

आपातकाल विरोधी आंदोलन से साथ शुरू हुई लालू और नीतीश की राजनीति 1992 के बिहार भवन विवाद में टूट गई, जिसने बिहार की सियासत को स्थायी रूप से बदल दिया।

बिहार की राजनीति के दो सबसे प्रभावशाली नेता लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक यात्रा जयप्रकाश नारायण के आपातकाल विरोधी आंदोलन से शुरू की थी। दोनों 1977 में राजनीति में उतरे — लालू ने जीत हासिल की, जबकि नीतीश को हार का सामना करना पड़ा। एक ने जनसंपर्क और करिश्माई अंदाज़ से लोकप्रियता पाई, जबकि दूसरा संगठन और रणनीति में माहिर साबित हुआ।

लालू यादव 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। इस दौर में नीतीश कुमार ने उन्हें सहयोग दिया, पर शासन पर अपनी राय देने से दोनों के बीच मतभेद बढ़े। लालू ने एक बार तंज कसते हुए कहा था, “गवर्नेंस से पावर मिलता है का? पावर वोट बैंक से मिलता है।” यह बयान दोनों नेताओं के बीच बढ़ती खाई का प्रतीक बन गया।

1992 में दिल्ली के बिहार भवन में दोनों के बीच बड़ा टकराव हुआ, जिसके बाद नीतीश कुमार ने लालू से दूरी बना ली। पत्रकार संकर्षण ठाकुर की किताब Brothers Bihari के अनुसार, इस झगड़े ने उनकी दोस्ती की अंतिम डोर तोड़ दी।

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1994 में ‘कुर्मी चेतना रैली’ के मंच से नीतीश कुमार ने लालू के खिलाफ खुला विद्रोह किया और कहा — “भीख नहीं, हिस्सेदारी चाहिए।” यही वह क्षण था जब लालू-नीतीश की राहें हमेशा के लिए अलग हो गईं।

फिर 2015 में दोनों ने भाजपा के खिलाफ साथ आकर ‘महागठबंधन’ बनाया, पर यह गठबंधन भी लंबे समय तक नहीं चला।
आज, पांच दशक बाद भी, बिहार की राजनीति में इन दोनों नेताओं की छाया सबसे गहरी है — एक ने विरासत बेटे तेजस्वी को सौंपी, दूसरा अब भी ‘सुशासन बाबू’ के रूप में सक्रिय है।

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