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यूरोप की नाराज़गी क्यों बेबुनियाद है: भारत-रूस संबंधों पर उठे सवालों का जवाब

पुतिन की यात्रा से पहले तीन यूरोपीय राजदूतों का आलोचनात्मक लेख कूटनीतिक मर्यादा का उल्लंघन था। भारत ने संयम दिखाते हुए स्पष्ट किया कि रूस-यूरोप विवाद उसकी जिम्मेदारी नहीं है।

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा से ठीक पहले ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के तीन उच्चायुक्तों ने एक भारतीय अखबार में संयुक्त लेख लिखकर रूस और पुतिन की कड़ी आलोचना की। यह कदम न केवल कूटनीतिक रूप से अनुचित था, बल्कि इसका कोई वास्तविक उद्देश्य भी नहीं था, क्योंकि भारत की रूस नीति पहले से स्पष्ट है और ऐसी टिप्पणियों से वह नहीं बदलेगी।

यूक्रेन संघर्ष के बाद से अमेरिका और यूरोप भारत पर रूस से दूरी बनाने का दबाव डालते रहे हैं। भारत को “गलत पक्ष पर खड़े होने” और रूस की निंदा न करने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी। यूरोपीय नेताओं ने कई मंचों, जिसमें रायसीना डायलॉग और G7 बैठकें शामिल हैं, भारत की स्थिति को चुनौती दी। लेकिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने हर बार यूरोप की आलोचना का मजबूती से जवाब दिया है।

यूरोप की नाराज़गी नई नहीं है, लेकिन तीन उच्चायुक्तों द्वारा पुतिन की यात्रा से ठीक पहले ऐसा लेख लिखना भारत पर “नैरेटिव का दबाव” बनाने की कोशिश थी। यह भारत-यूरोप संबंधों पर अनावश्यक छाया डालने जैसा था। इससे ऐसा संदेश गया मानो भारत रूस को लेकर यूरोपीय देशों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहा हो।

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कूटनीतिक रूप से यह कदम एक सीमा का उल्लंघन भी माना जा रहा है, क्योंकि किसी देश के राजदूत से अपेक्षा होती है कि वह मेजबान राष्ट्र के तीसरे देशों के साथ संबंधों पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी न करे। भारत ने प्रतिक्रिया में संयम दिखाया, इसे “असामान्य” और “अनुचित” बताया।

यूरोप के लिए यह समझना ज़रूरी है कि रूस-यूरोप संघर्ष उसकी अपनी राजनीतिक व सुरक्षा विफलताओं का परिणाम है। भारत उसकी जिम्मेदारी नहीं है। रूस के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक, रणनीतिक और राष्ट्रहित पर आधारित हैं और यूरोप की नाराज़गी से ये नहीं बदलेंगे।

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