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गणराज्य बनने से पहले भारत के विविध संवैधानिक दृष्टिकोण

1950 के संविधान से पहले भारत में कई राजनीतिक विचारकों और आंदोलनों ने विविध संवैधानिक मसौदे पेश किए, जो संप्रभुता, शासन, आर्थिक न्याय और सांस्कृतिक पहचान की अलग-अलग अवधारणाएँ दर्शाते हैं।

भारत को गणराज्य बनाने की यात्रा कोई एकरूपी प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह विविध विचारों, आंदोलनों और दृष्टिकोणों की बहस और संघर्ष से होकर गुजरी। 1895 से 1948 के बीच कई संवैधानिक मसौदे तैयार किए गए, जो उदारवाद, गांधीवादी विकेंद्रीकरण और समाजवादी क्रांति जैसे परस्पर विरोधी विचारों पर आधारित थे।

इनमें से प्रत्येक मसौदा उस समय के राजनीतिक और सामाजिक सोच का प्रतिबिंब था। 1895 का कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल, प्रारंभिक उदारवादी सोच का प्रतिनिधित्व करता था, जो ब्रिटिश अधीनस्थता में अधिक अधिकारों की मांग करता था।

नेहरू रिपोर्ट (1928), भारतीय नेताओं द्वारा तैयार पहला संपूर्ण संविधान मसौदा था, जिसमें धर्मनिरपेक्षता, मौलिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का प्रस्ताव रखा गया। इसके बाद गांधीजी के विचारों से प्रेरित मसौदों में ग्राम स्वराज और विकेंद्रीकरण को प्राथमिकता दी गई।

दूसरी ओर, एम.एन. रॉय और अन्य वामपंथी विचारकों ने एक समाजवादी संविधान की कल्पना की, जिसमें आर्थिक न्याय और समानता की बात प्रमुख थी।

1946-48 के बीच, संविधान सभा ने इन सभी विचारों पर विमर्श कर एक ऐसा संविधान तैयार किया, जो भारतीय समाज की बहुलता को समाहित करते हुए लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संप्रभु गणराज्य की नींव रखता है। ये प्रारंभिक मसौदे भारत की संवैधानिक चेतना के विकास में मील का पत्थर साबित हुए।

 
 
 
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