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जब एनडीए ने वाजपेयी के बिना सरकार पर किया विचार, और बीजेपी ने उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए सुझाया

1999 में वाजपेयी सरकार गिरने के बाद एनडीए में उन्हें हटाने की चर्चा हुई, लेकिन ममता बनर्जी और वाइको के विरोध से योजना रुकी और चुनाव में एनडीए की वापसी हुई।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 13 महीने की सरकार अप्रैल 1999 में महज एक वोट से गिर गई थी। इस घटनाक्रम के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के भीतर हलचल तेज हो गई थी। उस समय गठबंधन के कुछ नेताओं के बीच यह चर्चा शुरू हुई कि क्या वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाकर कुछ नए दलों के समर्थन से सरकार बनाने की कोशिश की जानी चाहिए।

यह खुलासा वाजपेयी के प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के सदस्य और मीडिया प्रभारी ने किया है। उन्होंने अपने संस्मरणों में 1999 के उस नाजुक दौर का जिक्र करते हुए बताया कि सरकार गिरने के बाद एनडीए के भीतर वैकल्पिक नेतृत्व को लेकर अटकलें लगने लगी थीं। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कुछ नेताओं ने वाजपेयी के नाम पर राष्ट्रपति पद के लिए विचार करने का सुझाव भी दिया था।

हालांकि, यह कोशिश ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी और एमडीएमके नेता वाइको ने साफ शब्दों में वाजपेयी को हटाकर नई सरकार बनाने के विचार का विरोध किया। इस मुद्दे पर उन्हें बीजू जनता दल (बीजेडी) के नेता नवीन पटनायक का भी समर्थन मिला। इन सहयोगी दलों का मानना था कि अटल बिहारी वाजपेयी ही एनडीए का सर्वमान्य चेहरा हैं और उनके बिना गठबंधन की कल्पना नहीं की जा सकती।

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सहयोगियों के इस कड़े रुख के चलते वाजपेयी को हटाने की योजना ठंडे बस्ते में चली गई। इसके बाद ताजा चुनाव कराए गए, जिनमें एनडीए ने शानदार वापसी की। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन ने पूर्ण बहुमत हासिल किया और अगले पांच वर्षों तक देश की सत्ता संभाली।

यह प्रकरण भारतीय राजनीति के इतिहास में एक अहम मोड़ माना जाता है, जिसने यह साबित किया कि गठबंधन सरकारों में नेतृत्व से अधिक सहयोगियों का विश्वास निर्णायक भूमिका निभाता है।

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