दहेज एक क्रॉस-कल्चरल बुराई, जो उपहार और सामाजिक अपेक्षाओं के रूप में छिप गई है: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज को धर्मों से परे एक सामाजिक बुराई बताया, जो ‘उपहारों’ के रूप में छिप गई है और शिक्षा पाठ्यक्रमों में समानता के संवैधानिक मूल्यों को मजबूत करने का निर्देश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रथा को एक “क्रॉस-कल्चरल बुराई” करार देते हुए कहा है कि यह समस्या धर्म और समुदायों की सीमाओं से परे है और समय के साथ खुद को ‘उपहारों’ तथा सामाजिक अपेक्षाओं के रूप में छिपाने में सफल हो गई है। शीर्ष अदालत ने कहा कि बेटियों की शादी “ऊंचे सामाजिक दर्जे वाले परिवारों” में करने की सामाजिक रणनीति ने महिलाओं के अधिकारों को भारी कीमत चुकाने पर मजबूर किया है।
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन.के. सिंह की पीठ द्वारा दिए गए इस फैसले में कहा गया कि दहेज की मांग को अक्सर सामान्य परंपरा या सामाजिक मजबूरी बताकर स्वीकार कर लिया जाता है, जबकि इसका सीधा असर महिलाओं की गरिमा, समानता और जीवन के अधिकार पर पड़ता है। अदालत ने कहा कि विवाह एक समानता पर आधारित संस्था होनी चाहिए, न कि लेन-देन का माध्यम।
इस मामले में कोर्ट ने एक बेहद संवेदनशील उदाहरण का उल्लेख किया, जहां 20 वर्षीय युवती की मौत सिर्फ इसलिए हो गई क्योंकि उसके माता-पिता रंगीन टेलीविजन, एक मोटरसाइकिल और ₹15,000 की मांग पूरी नहीं कर सके। फैसले में तीखी टिप्पणी करते हुए कहा गया कि ससुराल वालों की नजर में “वह लड़की शायद इतनी ही कीमत की थी।” यह टिप्पणी दहेज प्रथा की अमानवीयता और संवेदनहीनता को उजागर करती है।
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सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और सभी राज्यों को निर्देश दिया कि वे शिक्षा व्यवस्था में सुधार पर गंभीरता से विचार करें। अदालत ने कहा कि स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों में संवैधानिक मूल्यों को मजबूत किया जाना चाहिए, ताकि यह संदेश स्पष्ट रूप से पहुंचे कि विवाह में दोनों पक्ष एक-दूसरे के बराबर हैं।
अदालत ने जोर देकर कहा कि केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि सामाजिक सोच में बदलाव लाना भी जरूरी है। जब तक दहेज को सामाजिक प्रतिष्ठा और परंपरा से जोड़कर देखा जाता रहेगा, तब तक महिलाओं के खिलाफ यह बुराई समाप्त नहीं हो सकती।
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