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हालिया परिवहन संकट से मिली सीख: कीमतें, मांग और सरकारी भूमिका का विश्लेषण

हालिया ट्रेन भीड़ और उड़ान रद्दीकरण दिखाते हैं कि बिना सरकारी निवेश के सस्ती सेवाएं लाभ नहीं देतीं, और निजी क्षेत्र में अनियंत्रित कीमतें उपभोक्ता कल्याण को नुकसान पहुंचाती हैं।

पिछले कुछ महीनों में भारत की परिवहन व्यवस्था अभूतपूर्व दबाव में दिखाई दी। अक्टूबर और नवंबर में छठ पूजा तथा बिहार चुनावों के कारण बिहार जाने वाली ट्रेनों में भारी भीड़ उमड़ी। प्रवासियों की बड़ी संख्या ने यात्रा साधनों पर बोझ बढ़ा दिया, जिसके चलते यात्रियों को बेहद भीड़भाड़ और असुविधाजनक परिस्थितियों में अनारक्षित डिब्बों में सफर करना पड़ा। ट्रेनों की उपलब्धता कम होने के कारण स्थिति और गंभीर हो गई।

दूसरी ओर, दिसंबर में इंडिगो एयरलाइन की बड़ी संख्या में उड़ानें रद्द होने से यात्रियों को हवाई अड्डों पर फंसा रहना पड़ा। नियामकीय अनुपालन में खामियों के चलते यह रद्दीकरण हुआ, जिससे टिकटों के दाम अचानक बढ़ गए और यात्रियों को भारी आर्थिक और मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ा।

इन दोनों घटनाओं से यह समझने का अवसर मिलता है कि मांग और आपूर्ति में अचानक बदलाव होने पर कीमतें कैसे बदलती हैं और सरकार तथा निजी कंपनियाँ कैसे प्रतिक्रिया देती हैं। हालांकि, दोनों परिवहन क्षेत्रों में कीमतें अलग-अलग तरह से बदलीं, जिसने कल्याण पर अलग-अलग प्रभाव डाले।

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रेल सेवाएं सरकारी क्षेत्र में आती हैं, जहां टिकट दरें अपेक्षाकृत कम रखी जाती हैं ताकि आम जनता को सुलभ यात्रा मिल सके। लेकिन कम कीमतें तभी जनता के लिए लाभकारी होती हैं जब सरकार पर्याप्त निवेश करे। जब निवेश नहीं होता, तो ट्रेनों की कमी, भीड़भाड़ और खराब यात्रा अनुभव जैसी समस्याएं बढ़ती हैं।

वहीं, निजी एयरलाइन क्षेत्र में कीमतें deregulate की गई हैं, यानी कंपनियाँ स्थिति के अनुसार किराए बढ़ा सकती हैं। इस परिदृश्य में यदि निजी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा कमजोर हो या कुछ कंपनियाँ बाजार पर हावी हों, तो बढ़ी हुई कीमतें सीधे तौर पर उपभोक्ता कल्याण को कम कर देती हैं।

इस प्रकार हालिया संकट यह दिखाता है कि उचित सरकारी निवेश और संतुलित बाजार नियंत्रण के बिना, परिवहन क्षेत्र में कल्याण सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाता है।

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