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भारतीय कम्युनिज़्म के 100 साल: अभी इसका राजनीतिक शोकलेख लिखना जल्दबाज़ी होगी

भारतीय कम्युनिज़्म के 100 साल पूरे हो गए हैं। मौजूदा गिरावट के बावजूद, असमानता और वैश्विक हालात बताते हैं कि इसके अंत की घोषणा करना अभी जल्दबाज़ी होगी।

इस वर्ष आधुनिक भारत को आकार देने वाले दो बिल्कुल अलग संगठनों के 100 वर्ष पूरे हो रहे हैं—राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI)। दोनों के शताब्दी वर्ष का माहौल एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत है। जहां RSS, जो अब सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बन चुका है, ने अपना शताब्दी वर्ष धूमधाम से मनाया, वहीं कभी राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावशाली रही CPI का 100वां वर्ष लगभग बिना किसी चर्चा के गुजर गया। पार्टी की स्थिति इतनी कमजोर हो चुकी है कि वह एक साधारण समारोह भी आयोजित नहीं कर सकी।

यह चुप्पी एक बड़े सवाल को जन्म देती है—क्या भारतीय कम्युनिज़्म अपनी लंबी राजनीतिक यात्रा के अंत पर पहुंच गया है, या फिर यह गिरावट उसके उतार-चढ़ाव भरे इतिहास का सिर्फ एक और चरण है?

लेखक सी. राजा मोहन का तर्क है कि जिन परिस्थितियों ने कभी कम्युनिज़्म को जन्म दिया था, वे आज भी मौजूद हैं—बल्कि कई मायनों में पहले से ज्यादा तीव्र हो गई हैं। गहरी आर्थिक असमानता, कृषि संकट, असुरक्षित श्रम, सामंती मूल्यों की निरंतरता और वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल आज भी समाज को प्रभावित कर रही हैं। ऐसे में यह मान लेना कि वामपंथी या समाजवादी विचारधारा पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है, जल्दबाज़ी होगी।

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इसके अलावा, दुनिया के कई विकसित देशों में भी समाजवादी और वामपंथी विचारों में नई दिलचस्पी देखी जा रही है। युवाओं और श्रमिक वर्ग के बीच सामाजिक न्याय, समानता और राज्य की भूमिका पर फिर से बहस तेज हो रही है। भारत भी इन वैश्विक रुझानों से अछूता नहीं है।

भारतीय कम्युनिज़्म ने अपने सौ वर्षों के इतिहास में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं—कभी यह मुख्यधारा की राजनीति में था, तो कभी हाशिये पर। मौजूदा कमजोर स्थिति को अंतिम अध्याय मानना शायद उसके इतिहास और भविष्य दोनों को कम आंकना होगा।

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