बिहार में कर्ज संकट से जूझते परिवारों की पुकार — हमारा दर्द चुनावी मुद्दा क्यों नहीं?
बिहार में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों की कर्ज वसूली से आत्महत्याएं बढ़ीं, लेकिन यह गंभीर सामाजिक संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है। गरीब परिवार रोज़ाना ऋण जाल में फंस रहे हैं।
मुजफ्फरपुर जिले के मनिका गाजी गांव की तंग गलियों में मिट्टी और पानी से भरी पगडंडियों के बीच मनीषा पासवान अपने छोटे से अध्ययन कक्ष की ओर बढ़ती हैं — यह कमरा बांस की चटाइयों से बना है और मुख्य घर से अलग है। इसी कमरे में पिछले साल दिसंबर 2024 की एक ठंडी सुबह उसके पिता राजकिशोर पासवान ने आत्महत्या कर ली थी। वे माइक्रोफाइनेंस कंपनी (MFC) से लिया गया कर्ज नहीं चुका पाए थे। जब मनीषा की मां गीता देवी ने अपने पति को फांसी पर लटका देखा, तो उन्होंने उसी रस्सी से पास के लीची के पेड़ पर खुद को फांसी लगा ली।
यह कहानी अकेली नहीं है। बिहार के कई गांवों में कर्ज वसूली के नाम पर माइक्रोफाइनेंस एजेंटों की बदसलूकी, धमकी और उत्पीड़न के कारण आत्महत्याएं और गुमशुदगी के मामले बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन यह संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है।
कई सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार द्वारा स्वयं सहायता समूह (SHG) में शामिल महिलाओं को दिया जाने वाला ₹10,000 का प्रोत्साहन भी इस कर्ज जाल में समा जाता है। बिना स्थायी रोजगार के महिलाएं पुराने कर्ज चुकाने के लिए नया कर्ज लेने को मजबूर हैं।
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स्थानीय लोगों का कहना है कि राजनेता गांव-गांव प्रचार में जाते हैं, लेकिन इस “कर्ज संकट” पर कोई चर्चा नहीं होती। “हमारे परिवार खत्म हो रहे हैं, फिर भी किसी को परवाह नहीं”।
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