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श्रम विभाग का नाम बदलना काफी नहीं, बिहार को पलायन की समस्या को गंभीरता से लेना होगा

बिहार ने श्रम विभाग का नाम बदलकर प्रवासी मजदूरों को मान्यता दी है, लेकिन पलायन की समस्या के समाधान के लिए ठोस नीतियां, सामाजिक सुरक्षा और प्रभावी अमल अब भी जरूरी है।

बिहार की नवगठित मंत्रिपरिषद द्वारा “श्रम संसाधन विभाग” का नाम बदलकर “श्रम संसाधन एवं प्रवासी श्रमिक कल्याण विभाग” करना राज्य की कार्यबल नीति को देखने के नजरिये में एक अहम बदलाव को दर्शाता है। यह कदम इस बात की स्वीकारोक्ति है कि बिहार से बड़े पैमाने पर होने वाला पलायन केवल अविकास का परिणाम नहीं, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था की एक केंद्रीय विशेषता बन चुका है। हालांकि, केवल विभाग का नाम बदलना पर्याप्त नहीं है, जब तक कि इसके साथ ठोस नीतिगत और संस्थागत कार्रवाई न की जाए।

कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान यह सच्चाई पूरी तरह उजागर हो गई थी। उस समय देशभर से 1.08 करोड़ से अधिक प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्यों की ओर लौटे थे, जिनमें बड़ी संख्या बिहार की थी। इस संकट ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत की अर्थव्यवस्था किस हद तक असंगठित प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर है, जिनके पास न तो औपचारिक रोजगार अनुबंध होते हैं, न सामाजिक सुरक्षा, और न ही कोई मजबूत संस्थागत संरक्षण।

लॉकडाउन के दौरान सामने आई मानवीय त्रासदी ने प्रवासी श्रमिकों के कल्याण से जुड़ी गहरी प्रशासनिक और नीतिगत खामियों को उजागर किया। दुर्भाग्यवश, पांच साल बीत जाने के बाद भी इन खामियों को पूरी तरह दूर नहीं किया जा सका है। आज भी अधिकांश प्रवासी मजदूरों के लिए पंजीकरण, स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना बीमा, पोर्टेबल राशन कार्ड और कानूनी सहायता जैसी बुनियादी सुविधाएं अधूरी हैं।

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बिहार सरकार का यह प्रशासनिक पुनर्संयोजन सोच में बदलाव का संकेत जरूर देता है, लेकिन इसका वास्तविक प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि यह मान्यता जमीनी कार्रवाई में कैसे बदलती है। यदि राज्य प्रवासी श्रमिकों के लिए विश्वसनीय डाटा सिस्टम, अंतर-राज्यीय समन्वय, कौशल उन्नयन और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करता है, तभी यह पहल सार्थक सिद्ध होगी। अन्यथा, यह बदलाव केवल प्रतीकात्मक बनकर रह जाएगा।

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