चंपारण: गांधीजी का पहला सत्याग्रह और भारत की राजनीति का नया अध्याय
चंपारण आंदोलन ने गांधीजी को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित किया। नील किसानों के संघर्ष से टिंकठिया प्रथा समाप्त हुई और भारत को अहिंसक सत्याग्रह की शक्ति का पहला अनुभव मिला।
महात्मा गांधी का भारतीय राजनीति में वास्तविक प्रवेश बिहार के चंपारण से हुआ। यह सिर्फ एक आंदोलन नहीं था बल्कि भारत के लिए सत्याग्रह का जन्मस्थान साबित हुआ। जब गांधीजी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो वे राष्ट्रीय राजनीति में बहुत जाने-पहचाने नहीं थे। लेकिन 1917 में चंपारण ने उन्हें किसानों की पीड़ा से जोड़कर एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात कराया जिसने पूरे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष को नई दिशा दी।
चंपारण में किसानों को टिंकठिया प्रणाली के तहत मजबूरन अपने खेतों में नील की खेती करनी पड़ती थी। न तो यह खेती लाभकारी थी और न ही किसानों की मर्जी से होती थी। राजकुमार शुक्ला जैसे किसान नेताओं के आग्रह पर गांधीजी अप्रैल 1917 में मोतिहारी पहुंचे और किसानों की शिकायतें सुनने लगे। उन्होंने लगभग आठ हजार किसानों की गवाही दर्ज की जिसमें शोषण, मारपीट और अन्याय के प्रमाण मिले। गांधीजी और कस्तूरबा गांधी ने गांवों में शिक्षा और जागरूकता अभियान भी शुरू किया। इस आंदोलन में डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जे.बी. कृपलानी, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे कई भविष्य के राष्ट्रीय नेता भी जुड़े। ब्रिटिश प्रशासन गांधीजी के बढ़ते प्रभाव से घबराया और उन्हें चंपारण छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन गांधीजी ने शांतिपूर्ण ढंग से इसका विरोध किया।
गांधीजी के अडिग रुख ने किसानों को पहली बार अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस दिया। अहिंसक सत्याग्रह की शक्ति से ब्रिटिश सरकार को आयोग बनाना पड़ा और अंततः 1917 का चंपारण कृषि अधिनियम लागू हुआ, जिसने टिंकठिया प्रथा को समाप्त किया और किसानों को राहत दिलाई। इस आंदोलन ने भारत को दिखाया कि नैतिक शक्ति और सत्य पर आधारित नेतृत्व साम्राज्यवादी शासन को भी झुका सकता है। चंपारण की विरासत कानूनी सुधार से कहीं आगे जाकर भारतीय राजनीति को सेवा, सत्य और न्याय की राह पर ले गई।
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