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भारत को दो दशक पहले कुष्ठ मुक्त घोषित किया गया, फिर भी बच्चों में रोग क्यों मिल रहा है?

भारत में कुष्ठ उन्मूलन के बावजूद हर साल हजारों बच्चों में बीमारी मिल रही है, जो जारी संक्रमण, देर से पहचान और नियंत्रण रणनीति में खामियों को उजागर करता है।

भारत ने वर्ष 2005 में कुष्ठ रोग (लेप्रोसी) को एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में समाप्त घोषित किया था। इसके बावजूद, दो दशक बाद भी देश में हर साल लगभग एक लाख नए कुष्ठ रोग के मामले सामने आ रहे हैं, जो वैश्विक मामलों का करीब 60 प्रतिशत है। चिंताजनक बात यह है कि भारत में बच्चों में कुष्ठ रोग के नए मामलों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। वर्ष 2024–25 में 14 वर्ष से कम आयु के 4,722 बच्चों में इस बीमारी का पता चला। इसका अर्थ है कि दुनिया में हर दूसरा बाल कुष्ठ रोगी भारत से है और हर दो घंटे में एक भारतीय बच्चे में इस बीमारी का निदान हो रहा है।

हालांकि देश में राष्ट्रीय स्तर पर कुष्ठ रोग की व्यापकता अब घटकर प्रति 10,000 आबादी पर 0.57 रह गई है, लेकिन कई राज्यों में यह दर अब भी दो से तीन गुना अधिक बनी हुई है। नए बाल मामलों में से 1.2 प्रतिशत बच्चों में ग्रेड-2 विकलांगता (G2D) पाई गई, जो यह संकेत देती है कि बीमारी का पता देर से चल रहा है।

बच्चों में कुष्ठ रोग की मौजूदगी इस बात का स्पष्ट संकेत है कि समुदाय में संक्रमण अब भी जारी है, कई मामले बिना पहचान के रह जा रहे हैं और शुरुआती स्तर पर रोग की पहचान में गंभीर खामियां हैं। इसलिए बच्चों में कुष्ठ रोग को रोकना, इस बीमारी के पूर्ण उन्मूलन के लिए बेहद जरूरी है।

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भारत की ‘राष्ट्रीय कुष्ठ रणनीतिक योजना और रोडमैप 2023–2027’ विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के तीन चरणों वाले उन्मूलन ढांचे का पालन करती है। इसका पहला और सबसे अहम चरण संक्रमण को रोकना है, जिसके लिए लगातार पांच वर्षों तक स्थानीय स्तर पर बच्चों में शून्य मामले होना आवश्यक है। भारत 2027 तक ‘कुष्ठ मुक्त भारत’ के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है, लेकिन कई व्यावहारिक चुनौतियां इस लक्ष्य को कठिन बनाती हैं।

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