सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में उन राज्यपालों पर चिंता जताई है जो राज्यों की विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को लंबित रख रहे हैं। अदालत ने कहा कि इस तरह का रवैया संवैधानिक व्यवस्था को बाधित कर सकता है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए घातक है। न्यायालय का मानना है कि राज्यपालों को “मार्गदर्शक और दार्शनिक” की भूमिका निभानी चाहिए, न कि संवैधानिक प्रक्रियाओं को रोकने वाले कारक बनना चाहिए।
वहीं, केंद्र सरकार ने इस विवाद को ज्यादा गंभीर मानने से इंकार किया है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि यह मुद्दा उतना बड़ा नहीं है जितना बताया जा रहा है। उन्होंने कहा कि राज्य और राज्यपाल को मिलकर संवैधानिक कामकाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए “सहयोगात्मक” तरीके से कार्य करना चाहिए। उनका कहना था कि अगर सहयोग और संवाद कायम रहे तो किसी भी तरह की रुकावट को आसानी से दूर किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी उस समय आई है जब कई राज्यों ने यह शिकायत की थी कि राज्यपाल बिलों पर हस्ताक्षर करने में देरी कर रहे हैं, जिससे नीतियों और योजनाओं के क्रियान्वयन पर असर पड़ रहा है। कुछ मामलों में तो राज्य सरकारें इस देरी को “संवैधानिक संकट” तक करार दे चुकी हैं।
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विशेषज्ञों का कहना है कि यह मामला न केवल संघीय ढांचे की मजबूती से जुड़ा है, बल्कि इसमें कार्यपालिका और संवैधानिक पदों के बीच संतुलन की भी अहम भूमिका है। अदालत की टिप्पणियों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी स्तर पर संवैधानिक प्रक्रिया में बाधा को गंभीरता से लिया जाएगा।
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