मालेगांव और मुंबई बम विस्फोट मामलों के पीड़ित वर्षों से न्याय और राहत की उम्मीद में जी रहे हैं। कई कानूनी प्रक्रियाओं, सुनवाइयों और जांचों के बाद भी उनके जीवन में दर्द, असुरक्षा और निराशा बनी हुई है। यह पीड़ा केवल घटना के शारीरिक घावों तक सीमित नहीं है, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी गहरी चोट छोड़ चुकी है।
इन घटनाओं के शिकार लोग अब भी रोज़ाना संघर्ष कर रहे हैं—कुछ अपने प्रियजनों के खोने के गम से, तो कुछ गंभीर चोटों और रोज़गार के संकट से। न्याय में लंबी देरी ने उनके विश्वास को कमजोर कर दिया है, जिससे उनकी उम्मीदें लगभग खत्म हो चुकी हैं।
पत्रकारों के रूप में, हमें घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचने और सच्चाई दर्ज करने का विशेष अवसर और जिम्मेदारी मिलती है। हम वहां जाते हैं, जहां अन्य लोग भय और सुरक्षा कारणों से दूर भागते हैं—आतंकी हमलों, आग, दुर्घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं के स्थानों पर। यह पेशा हमें कहानियां कहने की प्रेरणा देता है, लेकिन बड़े हादसे हमेशा हमारे दिल और दिमाग पर गहरे निशान छोड़ जाते हैं।
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कई बार इन त्रासदियों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार भी लंबे समय तक मानसिक तनाव और आघात से जूझते रहते हैं। जबकि हमारी कलम पीड़ितों की आवाज़ को दुनिया तक पहुंचाती है, हम भी उनकी पीड़ा का बोझ अपने भीतर ढोते हैं।
मालेगांव और मुंबई विस्फोट की कहानियां सिर्फ कानूनी मामलों या खबरों तक सीमित नहीं हैं—ये इंसानी जिंदगियों की उन सच्चाइयों की गवाही देती हैं, जहां दर्द, अन्याय और संघर्ष का सिलसिला खत्म होता नहीं दिखता।
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