भारत की जनरेशन Z पीढ़ी को लंबे समय तक कुछ तयशुदा धारणाओं में बांधकर देखा गया है। उन्हें अक्सर उदासीन, जल्दी भटकने वाला, नाइटलाइफ़ और सोशल मीडिया की चमक-दमक में डूबा हुआ बताया गया। आम धारणा यह रही कि यह पीढ़ी आध्यात्मिक गहराई से ज्यादा ईडीएम म्यूज़िक, क्लबिंग और इंस्टा-वैलिडेशन में रुचि रखती है। लेकिन देश के बड़े शहरों में उभरता एक नया सांस्कृतिक बदलाव इस सोच को पूरी तरह चुनौती दे रहा है।
बेंगलुरु से मुंबई, दिल्ली से पुणे तक, युवा अब अंधेरे ऑडिटोरियम और कैफे से बने कॉन्सर्ट हॉल में जुट रहे हैं — शराब से भरी रेव पार्टियों के लिए नहीं, बल्कि सामूहिक भजन, नाम-स्मरण और भक्ति संगीत के लिए। मंदिरों और दादा-दादी के ड्रॉइंग रूम तक सीमित माने जाने वाले भजन अब आधुनिक साउंड सिस्टम, लाइटिंग और मंचीय प्रस्तुति के साथ नए रूप में सामने आ रहे हैं।
इन आयोजनों में कृष्ण, शिव और राम के नाम गूंजते हैं, लेकिन माहौल पूरी तरह युवा, ऊर्जावान और समकालीन होता है। यहां कोई नशा नहीं, फिर भी लोग एक अलग ही ‘हाई’ का अनुभव करते हैं — ऐसा सोबर हाई, जो सुकून और उत्साह दोनों देता है, और जिसका कोई हैंगओवर नहीं होता। मोबाइल फोन हवा में जरूर उठते हैं, लेकिन ड्रिंक्स के साथ सेल्फी के लिए नहीं, बल्कि उस क्षण को कैद करने के लिए, जहां संगीत और भक्ति एक हो जाते हैं।
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यह बदलाव दिखाता है कि जनरेशन Z सिर्फ पार्टी करने वाली पीढ़ी नहीं है, बल्कि वह अपने तरीके से अर्थ, जुड़ाव और आंतरिक शांति की तलाश में भी है। भजन क्लबिंग न केवल आध्यात्मिकता को नए सांचे में ढाल रही है, बल्कि यह भी साबित कर रही है कि भक्ति और आधुनिकता एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि साथ-साथ चल सकते हैं।
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