न्यायमूर्ति वर्मा के मामले में नियमों के अनुसार, उनके सामने इस्तीफा ही एकमात्र विकल्प है, यदि वे संसद द्वारा संभावित हटाए जाने की प्रक्रिया से बचना चाहते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि न्यायमूर्ति खुद इस्तीफा दे देते हैं, तो उन्हें एक सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय न्यायाधीश के रूप में पेंशन और अन्य कानूनी लाभ प्राप्त होंगे।
वहीं, यदि संसद उन्हें हटाने का निर्णय लेती है, तो उन्हें पेंशन और अन्य लाभों से वंचित किया जा सकता है। यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया और संविधान की स्पष्ट धारा के अनुरूप है। ऐसे मामलों में न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और संवैधानिक सुरक्षा पर भी सवाल उठते हैं, लेकिन नियमों के मुताबिक, इस्तीफा उन्हें सुरक्षित विकल्प प्रदान करता है।
विशेषज्ञों ने बताया कि यह स्थिति उच्च न्यायालय और संसद के बीच संवैधानिक शक्ति संतुलन का उदाहरण है। संसद के पास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की शक्ति होती है, लेकिन इसे लागू करने की प्रक्रिया जटिल और संवेदनशील होती है। इस्तीफा देने से न्यायमूर्ति खुद को इस जटिल प्रक्रिया और संभावित विवाद से बचा सकते हैं।
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इसके अलावा, इस्तीफा देने का निर्णय न्यायाधीश के करियर और उनके भविष्य के वित्तीय सुरक्षा दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। यदि वे पेंशन और अन्य सुविधाओं के हकदार रहना चाहते हैं, तो इस्तीफा एक सुरक्षित मार्ग है।
इस पूरे प्रकरण ने न्यायपालिका और संसद के बीच संवैधानिक अधिकारों और जिम्मेदारियों पर चर्चा को नई दिशा दी है। न्यायमूर्ति वर्मा का अगला कदम न केवल उनके व्यक्तिगत भविष्य, बल्कि न्यायपालिका के आत्म-सम्मान और शासन प्रणाली पर भी प्रभाव डाल सकता है।
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