भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जीवन से जुड़े अभिलेखों में उनके उत्तराधिकारी को लेकर एक रोचक और ऐतिहासिक पहलू सामने आता है। नेहरू अभिलेखागार के दस्तावेज़ों के अनुसार, वे अपने उत्तराधिकार को लेकर पूछे जाने वाले सवालों से अक्सर बचते रहे और इस विषय पर खुलकर बात करने से परहेज़ करते थे। यहां तक कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी उन्होंने इस मुद्दे को टालना ही बेहतर समझा।
1962 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को लगातार तीसरी बार भारी बहुमत से जीत दिलाने के कुछ महीनों बाद, नेहरू के स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं बढ़ने लगी थीं। इसी के साथ राजनीतिक हलकों और मीडिया में उनके उत्तराधिकारी को लेकर चर्चाएं तेज़ हो गई थीं। कई लोग सुझाव दे रहे थे कि भविष्य की राजनीतिक स्थिरता के लिए उन्हें अपने उत्तराधिकारी का नाम घोषित कर देना चाहिए। हालांकि, नेहरू हर बार इस प्रश्न को टाल देते थे।
22 मई 1964 को, अपने निधन से महज़ पांच दिन पहले, नेहरू ने अपना अंतिम प्रेस कॉन्फ्रेंस किया। इस दौरान जब उनसे गिरते स्वास्थ्य के मद्देनज़र उत्तराधिकार योजना को लेकर सवाल पूछा गया, तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, “मेरी ज़िंदगी इतनी जल्दी खत्म नहीं हो रही।” यह कथन उनके आत्मविश्वास और जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है।
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उस समय राजनीतिक गलियारों में इंदिरा गांधी का नाम चर्चा में था, लेकिन नेहरू ने कभी सार्वजनिक रूप से इसकी पुष्टि नहीं की। एक सवाल के जवाब में जब उनसे उप-प्रधानमंत्री नियुक्त करने का सुझाव दिया गया, तो उन्होंने कहा कि उन्हें इसमें “कोई विशेष लाभ” नहीं दिखता।
27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया। उनके जाने के बाद कांग्रेस पार्टी और देश को नए नेतृत्व की तलाश करनी पड़ी। नेहरू का यह रवैया कि वे अंतिम समय तक उत्तराधिकारी के मुद्दे पर स्पष्ट नहीं हुए, भारतीय राजनीति के इतिहास में आज भी चर्चा का विषय बना हुआ है।
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