शोध पत्र प्रकाशित करना आजकल विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के शिक्षकों तथा पीएचडी शोधार्थियों के लिए एक कठिन कार्य बन गया है। पदोन्नति या कैरियर मूल्यांकन के लिए शोध प्रकाशन को अनिवार्य योग्यता के रूप में निर्धारित किया गया है, लेकिन कई शोधार्थी प्रतिष्ठित जर्नल्स में अपने शोध प्रकाशित न कर पाने के कारण अपनी डॉक्टरेट पूरी नहीं कर पाते। यह स्थिति न केवल उनके शैक्षणिक विकास को प्रभावित करती है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालती है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, लगभग 70% पीएचडी छात्र किसी न किसी प्रकार के अवसाद (डिप्रेशन) से गुजरते हैं।
विशेष रूप से समाजशास्त्र और मानविकी के क्षेत्रों में कार्यरत शोधार्थी अपनी थीसिस को परंपरागत रूप में पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करने की प्रवृत्ति रखते हैं। लेकिन ये प्रकाशन अकादमिक मानकों और गुणवत्ता मूल्यांकन से काफी दूर होते हैं। इसके विपरीत, विज्ञान के क्षेत्र के शोधार्थी प्रायः ‘वेब ऑफ साइंस’ जैसे मान्यता प्राप्त जर्नल्स में प्रकाशित करते हैं, जिससे उनके शोध का अकादमिक मूल्य और विश्वसनीयता बढ़ती है।
मानविकी और सामाजिक विज्ञान के छात्रों में अवसाद की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है क्योंकि उन्हें उच्च गुणवत्ता वाले, पीयर-रिव्यूड जर्नल्स में शोध लेख प्रकाशित करने का पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिलता। शिक्षा प्रणाली में शोध प्रशिक्षण की कमी, प्रकाशन मानकों की अनभिज्ञता और शोध ईमानदारी (रिसर्च इंटीग्रिटी) के प्रति उदासीनता इस संकट के मुख्य कारण हैं।
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इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली में केवल शोध को अनिवार्य कर देना पर्याप्त नहीं है; बल्कि शोधकर्ताओं को गुणवत्ता, नैतिकता और अकादमिक प्रकाशन के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है।
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