भारत और चीन के बीच संबंधों में हाल के वर्षों में तनाव और अविश्वास की दीवार खड़ी हो गई है। ऐसे समय में नालंदा विश्वविद्यालय का इतिहास हमें यह सिखाता है कि संवाद, शिक्षा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से सभ्यताओं के बीच पुल बनाए जा सकते हैं।
नालंदा कभी ऐसा केंद्र था, जहाँ एशिया और अन्य देशों के विद्वान एकत्र होते थे और विचारों का आदान-प्रदान करते थे। यह केवल शिक्षा का स्थल नहीं था, बल्कि एक ऐसा मंच था जिसने विभिन्न सभ्यताओं को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। आज, जब भारत और चीन के बीच सीमा विवाद, रणनीतिक प्रतिस्पर्धा और आर्थिक मतभेद बढ़ रहे हैं, तो नालंदा की यही भावना हमें रास्ता दिखा सकती है।
भारत को यह समझना होगा कि संवाद की कमी से तनाव और बढ़ सकता है। नालंदा की परंपरा से प्रेरित होकर भारत सांस्कृतिक कूटनीति, शैक्षणिक साझेदारी और बौद्धिक संवाद के माध्यम से चीन के साथ संबंधों को संतुलित और रचनात्मक बना सकता है। इससे न केवल द्विपक्षीय संबंध सुधरेंगे, बल्कि एशिया में शांति और स्थिरता को भी बढ़ावा मिलेगा।
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भारत के लिए यह समय केवल सीमा प्रबंधन तक सीमित रहने का नहीं है, बल्कि दीर्घकालिक रणनीति बनाने का है। जैसे नालंदा ने अतीत में सभ्यताओं के बीच विचारों का सेतु बनाया, वैसे ही भारत आज चीन के साथ नए संवाद के अवसर पैदा कर सकता है। यह दृष्टिकोण प्रतिस्पर्धा को सहयोग में बदलने की दिशा में पहला कदम हो सकता है।
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