राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत द्वारा हाल ही में दिया गया बयान — कि 75 वर्ष की आयु के बाद नेताओं को पद छोड़ देना चाहिए — ने देशभर में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। इस बयान को कई विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर इशारा मानते हुए देखा है, जो इस वर्ष सितंबर में 75 वर्ष के होने जा रहे हैं।
हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है और चुप्पी साधे रखी है। विश्लेषकों का मानना है कि भागवत का यह बयान केवल एक सामान्य विचार नहीं, बल्कि संघ की विचारधारा के भीतर एक रणनीतिक संदेश हो सकता है।
इस विषय पर राजनीतिक विश्लेषक मनीषा प्रियंम और राहुल वर्मा ने एक संवाद में इस विचार पर प्रकाश डाला। दोनों विशेषज्ञों ने उम्र की सीमा के तर्क और उससे जुड़ी राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रभावशीलता पर विचार किया। मनीषा प्रियंम ने कहा कि लोकतंत्र में नेतृत्व का मूल्य अनुभव से आता है, लेकिन युवाओं को आगे लाने के लिए उम्रसीमा एक जरूरी कदम हो सकता है। वहीं, राहुल वर्मा ने तर्क दिया कि नेतृत्व क्षमता केवल उम्र से नहीं, बल्कि जनता के विश्वास और प्रदर्शन से मापी जानी चाहिए।
इस बहस से यह स्पष्ट होता है कि भारत की राजनीति में अब उम्र, अनुभव और नेतृत्व के संतुलन पर गंभीर विचार होना शुरू हो गया है। क्या 75 की उम्र राजनीति से विदाई की रेखा बनेगी — यह सवाल अब सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बन चुका है।