फिल्म ‘कूली’ के ज़रिए सुपरस्टार रजनीकांत और निर्देशक लोकेश कनगराज की जोड़ी को लेकर दर्शकों में भारी उत्साह था। रजनीकांत के 50 साल के लंबे करियर में हर नई फिल्म एक उत्सव बन जाती है, क्योंकि वे स्वयं एक ब्रांड बन चुके हैं। सवाल हमेशा यह रहता है कि निर्देशक कितनी कुशलता से इस करिश्मे को पर्दे पर उतार पाते हैं।
फिल्म के रिलीज़ से पहले यह उम्मीद थी कि लोकेश कनगराज अपने बेहतरीन निर्देशन और दमदार ऐक्शन के साथ एक नई ‘सुपरस्टार’ फिल्म पेश करेंगे। लोकेश को तमिल मास-एक्शन सिनेमा का नया सितारा माना जाता है और ‘लियो’ के बाद उनकी वापसी को लेकर उत्सुकता थी। लेकिन ‘कूली’ इन उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती।
फिल्म में रजनीकांत और साउबिन शाहीर की मौजूदगी के बावजूद कहानी कमजोर और नीरस लगती है। पटकथा में जान नहीं है और प्रशंसकों के लिए जो खास दृश्य डाले गए हैं, वे भी प्रभाव नहीं छोड़ पाते। फिल्म का लेखन सूखा है और भावनात्मक जुड़ाव नहीं बन पाता।
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अंत तक आते-आते दर्शक खुद से यही सवाल पूछते हैं कि वादा की गई “रजनी–लोकेश फिल्म” आखिर कहाँ है? यह फिल्म न तो पारंपरिक रजनीकांत शैली का जादू दिखा पाती है और न ही आधुनिक तमिल एक्शन सिनेमा का वह आकर्षण जो लोकेश कनगराज के नाम से जुड़ा रहा है।
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