दिल्ली की एक अदालत ने वर्ष 2009 में 23 वर्षीय युवती पर हुए एसिड अटैक मामले में तीन आरोपियों को बरी करते हुए पुलिस जांच को “लापरवाह और कमजोर” करार दिया है। अदालत ने कहा कि मामले की शुरुआत से ही जांच अधिकारी गंभीर नहीं दिखे और न तो पुख्ता सबूत जुटाए गए और न ही आवश्यक तकनीकी साक्ष्य, जैसे कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर)।
रोहिणी कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश जगमोहन सिंह ने 24 दिसंबर को दिए अपने आदेश में कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ ठोस और कानूनी रूप से स्वीकार्य साक्ष्य पेश करने में पूरी तरह विफल रहा। अदालत ने स्पष्ट किया कि पीड़िता द्वारा जताया गया गहरा संदेह, चाहे वह कितना भी मजबूत क्यों न हो, कानूनी सबूत का विकल्प नहीं हो सकता।
अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि पीड़िता को कथित रूप से धमकियां मिलने के बावजूद उसका नौकरी न छोड़ना कई सवाल खड़े करता है। हालांकि, न्यायाधीश ने यह भी कहा कि अदालत को पीड़िता के प्रति पूरी सहानुभूति है, लेकिन न्यायिक प्रक्रिया भावनाओं पर नहीं, बल्कि प्रमाणों पर आधारित होती है।
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अपने आदेश में अदालत ने कहा कि पुलिस न तो आरोपियों की भूमिका को स्पष्ट रूप से साबित कर सकी और न ही यह दिखा पाई कि कथित साजिश वास्तव में किस तरह रची गई। जांच के दौरान कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज किया गया, जिससे पूरे मामले की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।
अदालत ने पुलिस की कार्यशैली पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यदि समय रहते सही दिशा में जांच की जाती, तो सच्चाई सामने आ सकती थी। लेकिन कमजोर और अधूरी जांच के कारण अभियोजन पक्ष का मामला टिक नहीं सका।
इस आधार पर अदालत ने तीनों आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया और कहा कि केवल आशंका या संदेह के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह फैसला एक बार फिर आपराधिक मामलों में निष्पक्ष, गंभीर और वैज्ञानिक जांच की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
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