उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने एक 27 वर्षीय कानून के छात्र द्वारा दायर उस शिकायत को खारिज कर दिया है, जिसमें मुंबई की सिटी सिविल एंड सेशंस कोर्ट के रजिस्ट्रार पर कार्यवाही की प्रमाणित प्रतियां देने में देरी का आरोप लगाया गया था। आयोग ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करना एक वैधानिक अधिकार का उपयोग है, न कि किसी सेवा को किराए पर लेना, इसलिए इसे उपभोक्ता विवाद के दायरे में नहीं लाया जा सकता।
शिकायतकर्ता कानून छात्र ने दक्षिण मुंबई स्थित उपभोक्ता आयोग की पीठ के समक्ष यह शिकायत दर्ज कराई थी। उसने कहा था कि उसने वर्ष 2018 में सिटी सिविल कोर्ट में चल रहे एक दीवानी मुकदमे की कार्यवाही की प्रमाणित प्रतियां मांगी थीं। इसके लिए उसने नियमानुसार आवश्यक कोर्ट फीस स्टांप और प्रारंभिक जमा राशि भी जमा कर दी थी। छात्र का आरोप था कि इसके बावजूद उसे लंबे समय तक प्रमाणित प्रतियां उपलब्ध नहीं कराई गईं, जिससे उसे मानसिक परेशानी और नुकसान उठाना पड़ा।
हालांकि, उपभोक्ता आयोग ने मामले की सुनवाई के दौरान यह माना कि अदालत से प्रमाणित प्रतियां प्राप्त करने की प्रक्रिया कानून द्वारा नियंत्रित होती है और यह न्यायिक प्रणाली का हिस्सा है। आयोग ने कहा कि इस प्रक्रिया को किसी भी तरह से “सेवा” नहीं माना जा सकता, जैसा कि उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत परिभाषित है।
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आयोग ने यह भी कहा कि अदालत के रजिस्ट्रार या न्यायिक अधिकारी अपने वैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे होते हैं और ऐसे मामलों में देरी को उपभोक्ता विवाद नहीं माना जा सकता। यदि किसी पक्ष को प्रमाणित प्रतियां मिलने में देरी को लेकर आपत्ति है, तो उसके लिए कानून में अन्य वैधानिक उपाय उपलब्ध हैं, न कि उपभोक्ता आयोग।
इस आधार पर आयोग ने कानून छात्र की शिकायत को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि न्यायिक कार्यवाहियों से जुड़े प्रशासनिक कार्य उपभोक्ता संरक्षण कानून के अंतर्गत नहीं आते।
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