भारत वर्ष 2047 तक लगभग 1.1 करोड़ टन सौर अपशिष्ट (Solar Waste) उत्पन्न कर सकता है, जो मुख्यतः क्रिस्टलाइन-सिलिकॉन मॉड्यूल्स से होगा। यह जानकारी गुरुवार (6 नवंबर, 2025) को जारी ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (CEEW) के दो अध्ययनों में दी गई है।
अध्ययन के अनुसार, इस अपशिष्ट को संभालने के लिए देशभर में लगभग 300 रीसाइक्लिंग संयंत्रों की आवश्यकता होगी और इसके लिए लगभग ₹4,200 करोड़ के निवेश की जरूरत होगी। वहीं, अपशिष्ट सौर पैनलों से मूल्यवान सामग्री की पुनर्प्राप्ति और पुन: उपयोग से वर्ष 2047 तक ₹3,700 करोड़ का बाजार अवसर पैदा हो सकता है।
अध्ययन में कहा गया है कि यदि इस क्षमता का पूरा उपयोग किया जाए, तो सिलिकॉन, कॉपर, एल्युमिनियम और सिल्वर जैसी महत्वपूर्ण सामग्रियों की पुनर्प्राप्ति से 2047 तक सौर क्षेत्र की 38% विनिर्माण जरूरतें पूरी की जा सकती हैं और 3.7 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है।
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फिलहाल, भारत में सौर मॉड्यूल रीसाइक्लिंग उद्योग शुरुआती अवस्था में है और कुछ ही वाणिज्यिक इकाइयाँ सक्रिय हैं। CEEW के शोध ने भारत के लिए एक व्यापक सौर रीसाइक्लिंग ढांचा प्रस्तुत किया है जो स्वच्छ ऊर्जा और आत्मनिर्भर विनिर्माण दोनों को सशक्त करेगा।
CEEW फेलो ऋषभ जैन ने कहा, “भारत की सौर क्रांति एक नई हरित औद्योगिक संभावना को जन्म दे सकती है। यदि हम परिपत्र अर्थव्यवस्था को ऊर्जा प्रणाली में शामिल करें, तो यह महत्वपूर्ण खनिजों की पुनर्प्राप्ति और हरित रोजगार का मार्ग प्रशस्त करेगा।”
अध्ययन में यह भी बताया गया कि वर्तमान में सौर रीसाइक्लिंग घाटे का सौदा है — रीसाइक्लर्स को प्रति टन ₹10,000 से ₹12,000 तक का नुकसान होता है। इसके लाभकारी बनने के लिए या तो पैनलों की कीमत ₹330 से कम करनी होगी या EPR (Extended Producer Responsibility) और कर प्रोत्साहन जैसी नीतिगत मदद देनी होगी।
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