12 दिसंबर को जब पूरी दुनिया “यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज डे” मना रही है, तब मेरा मानना है कि सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन जनकल्याण के मानकों से पीछे हटना जनता के साथ अन्याय होगा। स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों पर समझौता किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।
हाल ही में मैंने सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखा, जिसमें प्रसिद्ध शिक्षक विकास दिव्यकीर्ति एक बेहद मार्मिक घटना साझा कर रहे थे। यह कहानी एक गरीब परिवार की थी, जिसने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। परिवार के 30 वर्षीय युवक को कैंसर होने का पता चला। डॉक्टरों ने बताया कि वह अधिकतम छह महीने तक जीवित रह सकता है, लेकिन इलाज बेहद महंगा होगा। इस पर परिवार ने एक कठोर और दिल तोड़ देने वाला फैसला लिया—इलाज न कराने का। उनका कहना था, “अगर इलाज कराया तो पूरा परिवार कर्ज के बोझ तले दबकर ‘मर’ जाएगा, इसलिए हमने उसे मरने देना ही बेहतर समझा।”
यह सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि उस आर्थिक क्रूरता का दस्तावेज़ है, जिससे भारत का गरीब और मध्यम वर्ग दशकों से जूझता आ रहा है। बीमारी केवल शरीर को नहीं, बल्कि पूरे परिवार की आर्थिक स्थिति को भी तोड़ देती है। इलाज के खर्च के डर से लोग अपने प्रियजनों को खोने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
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मेरे राजनीतिक जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य इसी बेबसी को खत्म करना रहा है। इसी सोच के साथ मैंने मुख्यमंत्री बनने के पहले दिन से ही काम करना शुरू किया। मेरा विश्वास है कि किसी भी सभ्य समाज में यह स्थिति नहीं होनी चाहिए कि इलाज के अभाव या खर्च के डर से किसी को अपनी जान गंवानी पड़े।
राज्य की जिम्मेदारी है कि वह नागरिकों को सुलभ, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराए। मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली न केवल जीवन बचाती है, बल्कि समाज को आर्थिक और सामाजिक रूप से भी सशक्त बनाती है। स्वास्थ्य पर किया गया निवेश भविष्य में मानव पूंजी और समग्र विकास की नींव बनता है।
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