विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) की हालिया लैंगिक असमानता रैंकिंग में भारत की स्थिति शिक्षा श्रेणी के कारण प्रभावित हुई है। इसके बावजूद, बीते वर्षों में भारत ने लड़कियों की शिक्षा में उल्लेखनीय प्रगति की है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अब स्कूलों में 48% छात्राएं हैं और उच्च शिक्षा में महिलाओं का सकल नामांकन अनुपात पुरुषों से थोड़ा अधिक है।
लेकिन, नेशनल सैंपल सर्वे (NSS) की 80वें दौर की रिपोर्ट इस प्रगति के पीछे छिपी एक गहरी समस्या उजागर करती है। अप्रैल से जून के बीच किए गए व्यापक सर्वेक्षण से पता चला है कि परिवार अपने बेटों की शिक्षा पर बेटियों की तुलना में अधिक खर्च करते हैं। यह अंतर प्री-प्राइमरी से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक और ग्रामीण-शहरी दोनों क्षेत्रों में समान रूप से मौजूद है।
रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में 52,085 परिवारों से डेटा जुटाया गया और 2,384 गांवों व 1,982 शहरी ब्लॉकों से 57,742 स्कूली छात्रों की जानकारी ली गई। निष्कर्ष स्पष्ट करते हैं कि शिक्षा में नामांकन बढ़ने के बावजूद खर्च की असमानता खत्म नहीं हुई है।
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शिक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि इस असमानता के पीछे सामाजिक मानसिकता और पारंपरिक प्राथमिकताएं बड़ी वजह हैं। परिवार अक्सर बेटों की शिक्षा को निवेश मानते हैं, जबकि बेटियों पर खर्च को सीमित रखते हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य में महिलाओं की रोजगार संभावनाओं और आर्थिक स्वतंत्रता पर नकारात्मक असर डाल सकती है।
भारत में शिक्षा के अवसरों की समानता सुनिश्चित करने के लिए केवल नामांकन ही नहीं, बल्कि शिक्षा पर समान निवेश भी आवश्यक है। रिपोर्ट इस दिशा में नीति-निर्माताओं को गंभीर कदम उठाने का संकेत देती है।
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