भारत का सर्वोच्च न्यायालय लंबे समय से लैंगिक असमानता की समस्या का सामना कर रहा है। वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में महिला न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम है, जो न्याय व्यवस्था में संतुलन और विविधता की कमी को दर्शाता है। विशेषज्ञों और कानूनी जानकारों का मानना है कि इस असंतुलन को दूर करने के लिए न्यायपालिका को ठोस कदम उठाने होंगे।
देश की आधी आबादी महिलाएं हैं, लेकिन न्यायपालिका में उनकी प्रतिनिधित्व की स्थिति बेहद कमजोर है। अब तक भारत के इतिहास में केवल कुछ ही महिलाएं सुप्रीम कोर्ट की न्यायाधीश बनी हैं। यह आंकड़ा साफ दर्शाता है कि न्यायपालिका में लैंगिक संतुलन को प्राथमिकता नहीं दी गई।
महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति बढ़ाने से न केवल अदालत की दृष्टि अधिक समावेशी होगी बल्कि न्याय प्रक्रिया में समाज के विविध पहलुओं का बेहतर प्रतिनिधित्व भी होगा। महिला न्यायाधीश उन मामलों में अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण ला सकती हैं जिनमें महिलाओं और बच्चों से जुड़े अधिकार शामिल हों।
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विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि जब तक सुप्रीम कोर्ट जैसे सर्वोच्च संस्थान में महिलाओं की संख्या पर्याप्त नहीं होगी, तब तक निचली अदालतों और हाईकोर्ट में भी यह असमानता बनी रहेगी। इसलिए शीर्ष स्तर पर बदलाव लाना समय की मांग है।
सुप्रीम कोर्ट की साख और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए आवश्यक है कि महिलाओं को न्यायपालिका में बराबरी का स्थान मिले। इससे न्यायपालिका की पारदर्शिता और विश्वसनीयता भी बढ़ेगी।
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