कर्नाटक में कन्नड़ भाषा और पहचान को लेकर चलने वाला आंदोलन केवल सड़कों पर होने वाले प्रदर्शनों या बंदों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह एक लंबे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संघर्ष की कहानी है। 1990 के दशक से अब तक यह आंदोलन कई चरणों से गुज़रा है — एकीकरण की मांग से लेकर हिंदी थोपने के विरोध तक।
कई पीढ़ियों के छात्रों के लिए वाताल नागराज का नाम परिचित रहा है — वह नेता जिनके विरोध प्रदर्शनों के चलते अचानक स्कूल बंद हो जाते थे। चाहे वह कावेरी जल विवाद हो या कन्नड़ नामपट्टियों का मुद्दा, नागराज का आंदोलन हमेशा सुर्खियों में रहता था। लेकिन इस सबके पीछे कन्नड़ अस्मिता की गहरी ऐतिहासिक जड़ें थीं, जिनका लक्ष्य था — भाषा, संस्कृति और क्षेत्रीय गर्व की रक्षा।
कन्नड़ आंदोलन की जड़ें मध्यकालीन कन्नड़ साहित्य में मिलती हैं, जिसने एक सांस्कृतिक पहचान को जन्म दिया। 1950 के दशक में यह आंदोलन राजनीतिक रूप से मजबूत हुआ, जब कन्नड़ भाषी क्षेत्रों के एकीकरण की मांग उठी और अंततः 1956 में कर्नाटक राज्य का गठन हुआ।
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समय के साथ यह आंदोलन बदलता गया — 1980 और 1990 के दशक में यह हिंदी विरोध, स्थानीय भाषा में शिक्षा और प्रशासन, और राज्य के आर्थिक अधिकारों पर केंद्रित हो गया। आज, डिजिटल युग में भी, कन्नड़ कार्यकर्ता भाषा के अस्तित्व और सम्मान की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं।
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