केंद्र सरकार द्वारा महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस) को एक नए विधेयक के जरिए बदलने की प्रक्रिया शुरू किए जाने के बीच, यह याद करना जरूरी है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पहली एनडीए सरकार के शुरुआती वर्षों में भी यह ग्रामीण रोजगार योजना अनिश्चितता के दौर से गुजरी थी।
एमजीएनआरईजीएस को मूल रूप से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) के नाम से यूपीए सरकार ने वर्ष 2004 में संसद में पेश किया था, जो उसका पहला कार्यकाल था। संसद के दोनों सदनों ने अगस्त 2005 में ध्वनि मत से इस विधेयक को पारित किया। इसके बाद फरवरी 2006 में इस योजना को देशभर में लागू किया गया। योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों को साल में कम से कम 100 दिन का सुनिश्चित रोजगार प्रदान करना था, ताकि आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
2014 में एनडीए सरकार के सत्ता में आने के बाद एमजीएनआरईजीएस को लेकर लगातार सवाल उठते रहे। वर्ष 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से इस योजना पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह पूर्ववर्ती सरकारों की नीतिगत असफलताओं को दर्शाती है। उन्होंने यह भी कहा था कि दशकों तक शासन करने के बावजूद ग्रामीण भारत में स्थायी रोजगार के अवसर पैदा नहीं किए जा सके, जिसके कारण ऐसी योजना की जरूरत पड़ी।
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हालांकि, आलोचनाओं के बावजूद सरकार ने एमजीएनआरईजीएस को बंद नहीं किया। समय के साथ इसमें बदलाव और संशोधन किए गए। सूखा, आर्थिक मंदी और कोविड-19 महामारी के दौरान यह योजना करोड़ों ग्रामीण परिवारों के लिए रोजगार और आय का एक अहम सहारा साबित हुई।
अब जब सरकार इसे एक नए कानून या वैकल्पिक व्यवस्था से बदलने पर विचार कर रही है, तो यह बहस फिर तेज हो गई है कि ग्रामीण रोजगार सुरक्षा के लिए एमजीएनआरईजीएस जैसी योजना कितनी जरूरी है और इसका भविष्य किस दिशा में जाएगा।
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