वामपंथी उग्रवाद यानी माओवादी आंदोलन से जुड़े लोगों की ज़िंदगी आमतौर पर रहस्यों और सख्त गोपनीयता के साए में रहती है। बाहरी दुनिया के लिए उनकी पहचान, कामकाज और निजी जीवन लगभग अदृश्य होते हैं। लेकिन हथियार छोड़कर आत्मसमर्पण करने के बाद, इन पूर्व उग्रवादियों की दुनिया पूरी तरह बदल जाती है। The Indian Witness ने रेड कॉरिडोर क्षेत्रों में सक्रिय रहे ऐसे कई माओवादियों से बातचीत की है, जिन्होंने आत्मसमर्पण के बाद सामान्य जीवन की ओर लौटने की कोशिश की है।
ओडिशा के कंधमाल ज़िले के फुलबनी कस्बे में रहने वाला लखन इसका एक उदाहरण है। वह अपनी छोटी-सी दुकान में मोटरसाइकिल की खराबी ठीक करने में व्यस्त रहता है। दुकान के बाहर ग्राहकों की बढ़ती कतार के बीच उसे मुश्किल से फुर्सत मिलती है। स्थानीय लोग इतना ही जानते हैं कि लखन इलाके के सबसे कुशल बाइक मैकेनिकों में से एक है।
हालांकि, बहुत कम लोगों को यह पता है कि लखन की ज़िंदगी कभी बिल्कुल अलग थी। उसके आसपास के कुछ करीबी लोग और स्थानीय पुलिस ही जानते हैं कि वह कहां से आया और उसने पहले क्या किया। आज जिस व्यक्ति के हाथों में पेचकस और औज़ार हैं, वही लखन पांच साल पहले बंदूकों और हथियारों से ज़्यादा परिचित था।
और पढ़ें: अरावली की परिभाषा पर सुप्रीम कोर्ट का स्वत: संज्ञान, विशेष पीठ करेगी सुनवाई
माओवादी संगठन के भीतर का जीवन कठोर अनुशासन, डर और लगातार संघर्ष से भरा होता है। आत्मसमर्पण करने वाले पूर्व कैडर बताते हैं कि संगठन छोड़ना आसान फैसला नहीं होता, लेकिन हिंसा से दूर हटने के बाद उन्हें एक नई पहचान और सम्मानजनक जीवन की उम्मीद मिलती है।
सरकार की पुनर्वास नीतियों और समाज में दोबारा स्वीकार किए जाने की प्रक्रिया ने कई आत्मसमर्पित उग्रवादियों को मुख्यधारा से जुड़ने में मदद की है। हालांकि, अतीत की परछाइयां अब भी उनका पीछा करती हैं, लेकिन लखन जैसे लोग यह साबित कर रहे हैं कि हिंसा छोड़कर भी एक नई शुरुआत संभव है।
और पढ़ें: 29 दिसंबर को अमेरिका में ट्रंप से मिलेंगे नेतन्याहू, गाज़ा युद्धविराम के अगले चरण पर अहम बातचीत