तमिलनाडु में जातिगत हत्याओं के खिलाफ राजनीतिक मौन की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। राज्य में कई दशक तक सत्ता में रहने वाले नेता, चाहे वे किसी भी पार्टी से हों, अक्सर जातिगत हिंसा पर खुलकर बोलने से बचते रहे।
पूर्व मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि और जयललिता जैसे नेता सभी समुदायों के प्रिय रहे और उन्हें राजनीतिक संतुलन बनाने में माहिर माना जाता था। इसके बावजूद, जब जातिवाद से प्रेरित हत्याओं का मामला सामने आता, तो ये नेता आम तौर पर चुप्पी साध लेते थे। उनके आलोचकों का कहना है कि यह मौन राजनीतिक सुरक्षा और सत्ता में बने रहने की रणनीति का हिस्सा था।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, तमिलनाडु में जातिगत हिंसा और हत्या केवल अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना और सामुदायिक सम्मान से जुड़ा जटिल मुद्दा है। नेताओं के मौन का कारण यह भी था कि किसी एक समुदाय के खिलाफ आवाज उठाना अन्य समुदायों के विरोध और राजनीतिक नुकसान का कारण बन सकता था।
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हालांकि समय-समय पर नेताओं ने संवेदनशील घटनाओं पर संक्षिप्त बयान दिए, लेकिन व्यापक और स्पष्ट विरोध की कमी रही। इसने जातिगत हिंसा के पीड़ितों के लिए न्याय और सामाजिक चेतना की प्रक्रिया को धीमा किया।
विशेषज्ञ मानते हैं कि तमिलनाडु की यह परंपरा राजनीतिक और सामाजिक दोनों स्तरों पर गंभीर प्रभाव डालती है। जब सत्ता में बैठे नेता हिंसा के खिलाफ खुलकर नहीं बोलते, तो इसका संदेश समाज में यह जाता है कि जातिगत हत्या पर नजरअंदाज किया जा सकता है।
इस मौन की परंपरा को तोड़ने और जातिगत हिंसा के खिलाफ मजबूत राजनीतिक नेतृत्व देने की आवश्यकता लगातार महसूस की जा रही है।
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