कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक नई तकनीक विकसित की है, जिससे एआई द्वारा बनाए गए वीडियो और डीपफेक की पहचान करना आसान होगा। यह तकनीक पारंपरिक डिजिटल वॉटरमार्किंग से अलग है, क्योंकि इसमें वीडियो फ़ाइल पर नहीं बल्कि वास्तविक प्रकाश स्रोतों (लाइट सोर्स) पर वॉटरमार्क लगाया जाता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह "लाइट-वॉटरमार्किंग" पद्धति भविष्य में फोरेंसिक विशेषज्ञों को यह पता लगाने में मदद करेगी कि वीडियो के पिक्सल में कोई छेड़छाड़ हुई है या नहीं। जब किसी वीडियो को रिकॉर्ड किया जाता है, तो दृश्य में मौजूद लाइट सोर्स को इस तरह से वॉटरमार्क किया जा सकता है कि उसकी चमक या रंग में सूक्ष्म पैटर्न बन जाए। बाद में यदि वीडियो से छेड़छाड़ की गई हो, तो ये पैटर्न टूट जाते हैं या बदल जाते हैं, जिससे तुरंत संकेत मिल जाता है कि कंटेंट असली है या नकली।
यह तकनीक डीपफेक वीडियो के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानी जा रही है। एआई टूल्स के जरिए तैयार वीडियो इतने वास्तविक दिखते हैं कि आम उपयोगकर्ताओं और कई बार विशेषज्ञों को भी असली और नकली में फर्क करना मुश्किल हो जाता है।
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कॉर्नेल की टीम ने बताया कि यह तरीका वीडियो की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं डालता और इसे विभिन्न प्रकार के कैमरों और प्रकाश उपकरणों के साथ लागू किया जा सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस शोध से डिजिटल मीडिया की प्रामाणिकता की जांच के नए रास्ते खुलेंगे और भविष्य में गलत सूचनाओं के प्रसार को रोकने में मदद मिलेगी।
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