तैरती हुई ट्रेनों से लेकर अत्याधुनिक एमआरआई मशीनों और कण त्वरकों तक, सुपरकंडक्टर आज की सबसे उन्नत तकनीकों की रीढ़ हैं। सुपरकंडक्टिविटी की खोज वर्ष 1911 में हुई, जब डच भौतिक विज्ञानी हाइक कामरलिंग ओन्स ने पारे की एक छोटी मात्रा को लगभग परम शून्य तापमान तक ठंडा किया। तब उन्होंने एक चौंकाने वाला तथ्य देखा—बिजली बिना किसी ऊर्जा हानि के प्रवाहित हो रही थी।
ओन्स ने अपनी प्रयोगशाला नोटबुक में बेहद सादगी से लिखा, “पारा एक नई अवस्था में प्रवेश कर चुका है।” यही वाक्य सुपरकंडक्टिविटी की खोज का प्रतीक बन गया। यह घटना इतनी असामान्य थी कि वैज्ञानिकों को इसे समझने में लगभग आधी सदी लग गई, और आज भी यह शोध का विषय बनी हुई है।
सामान्य पदार्थों से सुपरकंडक्टर बिल्कुल अलग व्यवहार करते हैं। आम तारों में इलेक्ट्रॉन आपस में टकराते हैं और ऊर्जा ऊष्मा के रूप में नष्ट होती है, ठीक वैसे ही जैसे भीड़भाड़ वाली सड़क पर लोग एक-दूसरे से टकराते हैं। लेकिन जब कुछ विशेष पदार्थों को एक निश्चित ‘क्रिटिकल तापमान’ से नीचे ठंडा किया जाता है, तो इलेक्ट्रॉन जोड़े बनाकर एक साथ तालमेल में चलने लगते हैं। वे बिना किसी रुकावट के पदार्थ के भीतर फिसलते रहते हैं।
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इस अवस्था में विद्युत प्रतिरोध पूरी तरह शून्य हो जाता है। एक बार शुरू की गई विद्युत धारा वर्षों तक बिना कमजोर हुए प्रवाहित हो सकती है।
सुपरकंडक्टिविटी की एक और अद्भुत विशेषता है चुंबकीय क्षेत्रों का पूरी तरह बाहर निकल जाना, जिसे माइस्नर प्रभाव कहा जाता है। जब कोई पदार्थ सुपरकंडक्टर बनता है, तो वह अपने अंदर से चुंबकीय क्षेत्र को बाहर धकेल देता है। इसी कारण चुंबक हवा में तैरता हुआ दिखाई देता है। यही सिद्धांत मैग्लेव ट्रेनों, शक्तिशाली एमआरआई कॉइल्स और भविष्य की क्वांटम तकनीकों की नींव है।
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