सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (3 नवंबर 2025) को जमीयत उलेमा-ए-हिंद की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को भीड़ हिंसा (मॉब लिंचिंग) के पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश देने की मांग की गई थी।
न्यायमूर्ति जे. के. महेश्वरी और न्यायमूर्ति विजय विष्णोई की खंडपीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश में दखल देने से इनकार किया। हाईकोर्ट ने पहले ही याचिकाकर्ताओं से कहा था कि वे इस मुद्दे पर राज्य सरकार से सीधे संपर्क करें।
जमीयत उलेमा-ए-हिंद और अन्य याचिकाकर्ताओं ने अपनी अर्जी में मांग की थी कि सुप्रीम कोर्ट के तहसीन पूनावाला केस (2018) में दिए गए दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को सख्त कदम उठाने का आदेश दिया जाए।
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इस याचिका में आरोप लगाया गया था कि राज्य सरकार ने शीर्ष अदालत द्वारा सुझाए गए रोकथाम, सुधारात्मक और दंडात्मक उपायों को ठीक से लागू नहीं किया है, जिसके कारण कई मामलों में पीड़ित परिवारों को न्याय और मुआवजा नहीं मिल सका।
हाईकोर्ट ने 15 जुलाई को इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि हर भीड़ हिंसा की घटना एक अलग मामला होती है, इसलिए उसे एक ही जनहित याचिका (PIL) के तहत मॉनिटर नहीं किया जा सकता।
हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि प्रभावित पक्षों को यह स्वतंत्रता है कि वे पहले संबंधित सरकारी अधिकारियों के पास जाकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लागू कराने के लिए निवेदन करें।
इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि भीड़ हिंसा मामलों में न्याय पाने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर कानूनी प्रक्रिया अपनानी होगी, न कि एक सामूहिक याचिका के माध्यम से।
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