सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वैवाहिक विवादों में बच्चों की कस्टडी से जुड़े निर्णय "कड़े और अंतिम" नहीं हो सकते और अदालतें बालक के सर्वोत्तम हित में इन आदेशों को संशोधित कर सकती हैं। यह टिप्पणी अदालत ने 12 वर्षीय बच्चे की कस्टडी उसके पिता को सौंपने के अपने ही पिछले आदेश को पलटते हुए दी।
न्यायमूर्ति श्री विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति श्री प्रसन्न बी वराले की पीठ ने कहा कि पूर्व आदेश का बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य पर "विनाशकारी प्रभाव" पड़ा और वह चिंता (एंग्जायटी) से जूझ रहा है।
न्यायिक निर्णय के अनुसार, बच्चे के माता-पिता का विवाह 2011 में हुआ और 2012 में बच्चा हुआ। एक वर्ष बाद दोनों अलग हो गए और बच्चे की कस्टडी मां को दी गई। मां ने 2016 में दो बच्चों के पिता से पुनर्विवाह किया और इस दंपत्ति को भी एक संतान हुई।
पिता ने कहा कि 2019 तक उसे बच्चे की स्थिति की जानकारी नहीं थी। मां ने पासपोर्ट संबंधित दस्तावेज़ों के लिए उससे संपर्क किया क्योंकि वह अपने दूसरे पति और बच्चों के साथ मलेशिया स्थानांतरित होना चाहती थीं। पिता को तब पता चला कि बिना उसकी जानकारी या सहमति के बच्चे का धर्म हिन्दू से ईसाई में बदल दिया गया था।
बाद में पिता ने पारिवारिक न्यायालय में कस्टडी की मांग की, लेकिन राहत नहीं मिली। उच्च न्यायालय में चुनौती देने पर पिता को बच्चे की कस्टडी मिल गई। मां ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसे अगस्त 2023 में खारिज कर दिया गया।
इसके बाद मां ने नए सिरे से याचिका दायर की और तर्क दिया कि यह निर्णय बच्चे के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। एक क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की रिपोर्ट से पुष्टि हुई कि बच्चे को गंभीर "सेपरेशन एंग्जायटी डिसऑर्डर" का खतरा है।
कोर्ट ने कहा कि कस्टडी से संबंधित आदेश कठोर नहीं हो सकते और इन्हें बच्चे के सर्वोत्तम हित में बदला जा सकता है। "बाल कल्याण ही सर्वोच्च मानदंड है, जो समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है," अदालत ने कहा।
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि बच्चा 11 माह की उम्र से ही मां के पास है और जैविक पिता से मुश्किल से कुछ बार ही मिला है। ऐसे में अचानक कस्टडी में बदलाव से उसकी मानसिक स्थिति पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
सीएमसी वेल्लोर के मनोचिकित्सकों की रिपोर्ट के अनुसार, बच्चे को एक स्थिर और भावनात्मक रूप से सहायक वातावरण की आवश्यकता है। किसी भी तरह की अस्थिरता से उसकी स्थिति और बिगड़ सकती है।
कोर्ट ने यह भी माना कि बच्चा अपनी मां, सौतेले पिता और सौतेले भाई को ही अपना निकटतम परिवार मानता है और वहां खुद को सुरक्षित महसूस करता है। सौतेले पिता ने बच्चे को पालन-पोषण और शिक्षा देने की प्रतिबद्धता अदालत में दर्शाई है।
हालांकि, अदालत ने श्री पिता की भूमिका निभाने की इच्छा को भी मान्यता दी और मां को निर्देश दिया कि वह मुलाकात की सुविधा प्रदान करें। कोर्ट ने कहा कि दोनों माता-पिता को बच्चे के विकास में सहयोग देना चाहिए और आपसी सम्मान बनाए रखना चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा कि श्री पिता को यह समझना होगा कि इतने वर्षों की अनुपस्थिति के बाद वह बच्चे से अचानक भावनात्मक जुड़ाव की अपेक्षा नहीं कर सकते। "पिता-पुत्र संबंध केवल वर्षों की सतत उपस्थिति, ज़िम्मेदारी और स्नेहपूर्ण व्यवहार से विकसित हो सकता है," कोर्ट ने अपने आदेश में कहा।