उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जाति आधारित राजनीतिक रैलियों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले ने नया राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया है। विपक्षी दलों ने इस निर्णय को “आंखों में धूल झोंकने वाला कदम” और लोकतांत्रिक आवाज़ों को दबाने की साज़िश करार दिया है।
कांग्रेस ने इस आदेश को विशेष रूप से खतरनाक बताया। पार्टी नेताओं का कहना है कि यह प्रतिबंध दलित, पिछड़े, हाशिए पर खड़े और वंचित समुदायों की आवाज़ को दबाने का प्रयास है। कांग्रेस प्रवक्ताओं ने कहा कि जाति आधारित रैलियां सामाजिक न्याय और समानता की मांगों को उजागर करने का माध्यम रही हैं। ऐसे में प्रतिबंध का सीधा असर उन वर्गों पर पड़ेगा जो राजनीतिक रूप से पहले ही कमजोर स्थिति में हैं।
समाजवादी पार्टी और अन्य क्षेत्रीय दलों ने भी सरकार के इस कदम का विरोध किया। उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति लंबे समय से जाति समीकरणों पर आधारित रही है, और इस प्रतिबंध के पीछे सत्ताधारी दल की राजनीतिक मंशा छिपी है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार केवल दिखावा कर रही है जबकि असलियत में चुनावी लाभ के लिए जातिगत राजनीति को खुद बढ़ावा देती है।
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राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला कानूनी और संवैधानिक बहस को जन्म दे सकता है। सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार राजनीतिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के अधिकार को सीमित करने का प्रयास कर रही है।
फिलहाल, इस आदेश ने प्रदेश की राजनीति को और गरमा दिया है। आने वाले समय में इस मुद्दे पर बड़े आंदोलन और न्यायिक हस्तक्षेप की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
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