कर्नाटक में प्रस्तावित सामाजिक-शैक्षणिक सर्वेक्षण से पहले वीरशैव-लिंगायत समुदाय के भीतर एक बार फिर भ्रम और असमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। इस समुदाय के भीतर लंबे समय से यह विवाद रहा है कि वे जनगणना या किसी भी आधिकारिक दस्तावेज़ में स्वयं को किस नाम से पहचानें—वीरशैव या लिंगायत।
बीते कुछ दशकों से यह दुविधा हर बार जनगणना के दौरान सामने आती रही है। हालांकि 2017 में लिंगायत धर्म को स्वतंत्र धर्म का दर्जा दिलाने के लिए हुए बड़े आंदोलन के बाद यह विवाद और भी जटिल हो गया है। आंदोलन के बाद से समुदाय के भीतर यह बहस तेज़ हो गई कि वीरशैव और लिंगायत एक ही पहचान हैं या अलग-अलग धार्मिक स्वरूप रखते हैं।
आगामी सर्वेक्षण ने इस मुद्दे को फिर से ताज़ा कर दिया है। समुदाय के नेताओं और संगठनों द्वारा दिए गए परस्पर विरोधी निर्देशों ने आम लोगों को और अधिक उलझन में डाल दिया है। कई संगठनों का मानना है कि लिंगायत को स्वतंत्र धार्मिक पहचान मिलनी चाहिए, जबकि अन्य लोग वीरशैव-लिंगायत को एक ही परंपरा का हिस्सा मानते हैं।
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राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह मुद्दा केवल धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं है बल्कि सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव से भी जुड़ा हुआ है। कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत समुदाय की अहम भूमिका रही है और उनकी एकजुटता या विभाजन दोनों का सीधा असर चुनावी समीकरणों पर पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे को संभालने में सतर्क रहना होगा ताकि समुदाय के भीतर अनावश्यक तनाव न बढ़े और सर्वेक्षण का उद्देश्य निष्पक्ष रूप से पूरा हो सके।
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