इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा कि एक खुशहाल विवाहित जोड़े को केवल औपचारिक गवाही दर्ज करने के लिए POCSO एक्ट के तहत ट्रायल का सामना करने पर मजबूर करना “भाग्य की विडंबना” और “उत्पीड़न का उपकरण” होगा। अदालत ने इस मामले में दर्ज एफआईआर और सभी आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी।
यह मामला उन परिस्थितियों से जुड़ा है जिसमें महिला के पिता ने अप्रैल 2024 में आरोपी अश्विनी आनंद के खिलाफ अपनी बेटी के अपहरण का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराई थी। लेकिन महिला ने पुलिस के सामने अपने बयान में सभी आरोपों से इनकार किया और स्पष्ट रूप से कहा कि वह अपनी मर्जी से माता-पिता का घर छोड़कर गई थी और बाद में उसी युवक से विवाह भी किया।
न्यायमूर्ति क्षितिज शैलेंद्र ने याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि जब न्याय के हित तत्काल हस्तक्षेप की मांग करें, तो अदालत “मूक दर्शक” नहीं रह सकती। उन्होंने कहा कि कानून का उद्देश्य समाज के लिए समस्याएं उत्पन्न करना नहीं, बल्कि समाधान खोजना है।
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अदालत ने अपने 21 नवंबर के आदेश में कहा कि न्यायाधीश का “पवित्र कर्तव्य” है कि वह “हर आंख के आंसू को पोंछे”। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि ऐसी परिस्थितियों में महिला को महीनों और वर्षों तक अदालत में पेश होने के लिए मजबूर करना—जबकि वह अपने पति के खिलाफ कोई आरोप स्वीकार नहीं करती—उसे केवल परेशान करने जैसा होगा।
जांच के बाद पुलिस ने चार्जशीट दाखिल कर दी थी, जबकि कथित पीड़िता ने शुरुआत से ही आरोपों को खारिज किया था और कहा था कि उसने अपनी इच्छा से घर छोड़ा था। हाईकोर्ट ने इसे ध्यान में रखते हुए कहा कि इस तरह की कार्यवाही जारी रखना न्याय के उद्देश्यों के विपरीत है और इसे रद्द करना आवश्यक है।
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