मई 1982 की बात है। कैलिफोर्निया के सिएरा नेवादा पहाड़ों में, 22 वर्षीय जीन म्यूनक्राथ और उनके बॉयफ्रेंड केन जॉन म्यूर ट्रेल पर एक महीने की स्की यात्रा के आख़िरी पड़ाव—माउंट व्हिटनी—पर पहुंचे थे। बादलों की गड़गड़ाहट बढ़ रही थी और तूफान सर पर था। लेकिन जीन को नहीं पता था कि यह तूफान उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल देगा।
जीन और केन ने इस सफर में भालुओं, बर्फ़ीले तूफानों और थकान से लड़ते हुए हज़ारों फीट ऊंचाइयों को पार किया था। लेकिन जब उन्होंने नीचे उतरने के लिए रास्ता बदला, तो किस्मत ने करवट ली। केन का पैर फिसला और वह करीब 800 फीट नीचे जा गिरे। जीन ने डर को दबाकर खुद को संभाला, लेकिन उतरते वक्त वह भी फिसल गईं। उन्हें बस इतना याद है—“भगवान, मुझे गिरने मत देना।” फिर अंधेरा छा गया।
जब होश आया, केन उन्हें बर्फ़ पर घसीट रहा था। रीढ़ की हड्डी, श्रोणि और कूल्हे में कई जगह फ्रैक्चर थे। अंदरूनी चोटें और भारी रक्तस्राव—लेकिन जीवित रहने की इच्छा अब भी जिंदा थी। तूफान में दो दिन एक तंग टेंट में फंसे रहने के बाद, दोनों ने नीचे उतरने का फैसला किया। जीन ने खुद से कहा—“पीछे मत देखो, बस आगे बढ़ो।”
टूटी हड्डियों और 15 किलो के बैग के साथ बर्फ़ और चट्टानों पर चलना असंभव लग रहा था। मगर उन्होंने हर कदम को एक मील का पत्थर बना दिया। “अगर मरना ही है, तो कोशिश करते हुए मरूंगी,” वह खुद से कहती रहीं। दर्द, ठंड और थकान से जूझते हुए वह पांच दिन बाद नीचे पहुंचीं। अस्पताल में पता चला—उनकी रीढ़ तीन जगह से टूटी थी, पेल्विस चकनाचूर थी और शरीर में गैंगरीन फैल चुका था।
कई महीनों तक बिस्तर पर रहने के बावजूद, डॉक्टरों की “कभी फिर से नहीं चल पाओगी” वाली भविष्यवाणी को जीन ने गलत साबित किया। दो साल बाद उन्होंने हिमालय की यात्रा की, वही सपना जो उन्होंने मौत के साये में देखा था।
लेकिन जिंदगी आसान नहीं रही। 1990 के दशक में पुरानी चोटों के कारण उनका शरीर फिर टूटने लगा। दर्द से जूझते हुए उन्होंने बौद्ध ध्यान और करुणा साधना से खुद को संभाला। “मैंने हर दर्द को ध्यान में बदल दिया,” वह कहती हैं। इस यात्रा ने उन्हें भीतर से बदल दिया—अब वह दूसरों के लिए प्रेरणा हैं।
2013 में जीन दोबारा माउंट व्हिटनी लौटीं, उसी जगह जहां उन्होंने मृत्यु को महसूस किया था। वहां उन्हें केन की टूटी हुई स्की मिली—और वर्षों का रोका हुआ दर्द बाहर निकल आया। “वह पल मुक्ति का था,” वह कहती हैं। “मैंने खुद को माफ किया—और सच में जीना शुरू किया।”
आज 65 की जीन म्यूनक्राथ को देखकर यह कहना मुश्किल है कि उन्होंने कभी मौत को इतना करीब से देखा था। लेकिन शायद यही तो जिंदगी की खूबसूरती है—गिरना, टूटना और फिर पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उठ जाना।