अमेरिका की नई निर्वासन नीति ने दुनिया भर के प्रवासियों के लिए चिंता की लहर पैदा कर दी है। US Immigration and Customs Enforcement (ICE) अब प्रवासियों को उन देशों में निर्वासित करने की योजना बना रही है, जो उनके अपने नहीं हैं, और यह सब बिना किसी सुरक्षा गारंटी के होगा। ICE के कार्यवाहक निदेशक टॉड लायन्स द्वारा जारी एक मेमो के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय ने एजेंसी को बिना "राजनयिक आश्वासन" के भी प्रवासियों को तुरंत निर्वासित करने की अनुमति दी है। वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, यदि ऐसे देशों में निर्वासन होता है जहां सुरक्षा की कोई राजनयिक गारंटी नहीं है, तो प्रवासियों को आदर्श रूप से 24 घंटे पूर्व सूचना दी जाएगी। लेकिन "आपात परिस्थितियों" में केवल छह घंटे की सूचना के अंदर भी निर्वासन किया जा सकता है।
ऐसे देशों में जहां अमेरिका को सुरक्षा की गारंटी मिलती है, वहां प्रवासियों को बिना किसी सूचना के भी निर्वासित किया जा सकता है। यह नीति पिछले तरीकों से बिल्कुल अलग है, जहां शायद ही कभी प्रवासियों को तीसरे देशों में भेजा जाता था। इससे चीन और क्यूबा जैसे देशों के नागरिक भी प्रभावित होंगे, जिनका अमेरिका से संबंध तनावपूर्ण है और जो निर्वासन में सहयोग नहीं करते।
कानूनी विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यह नीति हजारों पुराने प्रवासियों को खतरे में डाल सकती है, जिनके पास कार्य परमिट हैं और जो लंबे समय से अमेरिका में अपने परिवारों के साथ रह रहे हैं। इन लोगों को ऐसे देशों में भेजा जा सकता है जहां उनका कोई पारिवारिक या भाषाई संबंध नहीं है। नेशनल इमिग्रेशन लिटिगेशन एलायंस की कार्यकारी निदेशक ट्रिना रियालमुटो ने कहा कि "यह नीति हजारों लोगों को प्रताड़ना और उत्पीड़न के खतरे में डालती है।"
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने पहले के एक निचली अदालत के आदेश को रोक दिया है, जिसमें ट्रंप प्रशासन को बिना 10 दिन की लिखित सूचना दिए प्रवासियों को निर्वासित करने से मना किया गया था। न्यायमूर्ति सोनिया सोतोमयोर ने इस फैसले का विरोध करते हुए चेतावनी दी कि यह लोगों की जान को खतरे में डाल सकता है।
ICE प्रमुख के मेमो में कहा गया है कि अब विदेश मंत्रालय द्वारा स्वीकृत आश्वासनों के आधार पर किसी प्रवासी को तीसरे देश में 24 घंटे के अंदर भेजा जा सकता है। अधिकारियों को यह पूछने की भी आवश्यकता नहीं होगी कि क्या प्रवासी को तीसरे देश में डर लगता है। यदि कोई डर व्यक्त करता है, तो उस प्रवासी की 24 घंटे के अंदर स्क्रीनिंग की जाएगी कि क्या उसे मानवतावादी संरक्षण मिलना चाहिए। यह स्क्रीनिंग "आमतौर पर" उसी 24 घंटे की समयसीमा के भीतर पूरी की जाएगी, जिससे तय होगा कि मामला इमिग्रेशन कोर्ट में जाएगा या नहीं।
यह नीति न केवल न्यायिक पारदर्शिता पर सवाल खड़े करती है, बल्कि मानवाधिकारों के उल्लंघन की भी संभावना को बढ़ाती है। विशेषज्ञों और वकीलों का मानना है कि सरकार ने जीवन और मृत्यु के मामलों में जल्दबाज़ी से काम लिया है।