केरल में विश्वविद्यालयों को लेकर जिस प्रकार की विचारधारात्मक खींचतान देखने को मिल रही है, वह गंभीर चिंता का विषय बन गया है। शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले ये संस्थान अब धीरे-धीरे राजनीतिक और वैचारिक टकराव के केंद्र बनते जा रहे हैं, जो उनके मूल उद्देश्य—शिक्षा, नवाचार और अकादमिक स्वतंत्रता—को कमजोर कर रहा है।
हाल के वर्षों में कई मामलों में यह देखा गया है कि विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों, पाठ्यक्रम निर्माण और प्रशासनिक फैसलों में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति न केवल छात्रों और शिक्षकों के लिए चुनौतीपूर्ण है, बल्कि पूरी शिक्षा प्रणाली की साख पर सवाल खड़े करती है। विश्वविद्यालयों को किसी भी विचारधारा का उपकरण बनाना न केवल अनुचित है, बल्कि यह ज्ञान की निष्पक्षता के सिद्धांतों का भी उल्लंघन है।
शिक्षा तटस्थ होनी चाहिए, जो आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करे और छात्रों को विचारों के विविध संसार से परिचित कराए। यदि विश्वविद्यालयों को राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगेगा, तो यह अकादमिक गुणवत्ता को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है।
केरल, जो लंबे समय से शैक्षणिक उत्कृष्टता और सामाजिक प्रगति के लिए जाना जाता है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके विश्वविद्यालय स्वतंत्र, समावेशी और नवाचार-प्रेरित रहें।
इसलिए जरूरी है कि सभी पक्ष मिलकर यह संकल्प लें कि शिक्षा को राजनीति से ऊपर रखा जाए और विश्वविद्यालयों को उनके अकादमिक मिशन पर केंद्रित रहने दिया जाए।