भारत में लोगों को "बेबी बूमर्स", "मिलेनियल्स" या "जेन Z" जैसे पश्चिमी वर्गीकरणों में बांटना न तो सटीक है और न ही व्यवहारिक। ये श्रेणियां पश्चिमी सामाजिक और ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित हैं — जैसे द्वितीय विश्व युद्ध, अमेरिका की आर्थिक समृद्धि, या तकनीकी क्रांति — जो भारतीय संदर्भ में लागू नहीं होतीं।
भारत की सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक स्मृति और ऐतिहासिक घटनाएं बिल्कुल अलग हैं। भारतीय जनसंख्या को समझने और उनसे जुड़ने के लिए नीतियों या बाजार रणनीतियों को उम्र नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखकर बनाना चाहिए।
हमारे देश की पीढ़ियां स्वतंत्रता आंदोलन, आज़ादी के बाद का आदर्शवाद, ब्लैक-एंड-व्हाइट दूरदर्शन से लेकर रंगीन केबल टीवी तक की यात्रा, 1991 की आर्थिक उदारीकरण नीति और 2010 के दशक में इंटरनेट के विस्फोट जैसे अनुभवों से परिभाषित होती हैं।
इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पड़ावों ने लोगों की सोच, उपभोग की आदतों और सामाजिक मूल्यों को आकार दिया है। इसलिए भारत को एक ऐसा पीढ़ीगत ढांचा अपनाना चाहिए जो देश की वास्तविकता को दर्शाए, न कि पश्चिम से आयातित लेबल पर निर्भर करे।
यदि सरकार, कॉरपोरेट या नीति निर्माता वास्तव में भारत के नागरिकों को समझना चाहते हैं, तो उन्हें आयु-आधारित नहीं, बल्कि स्मृति, अनुभव और सांस्कृतिक बदलावों पर आधारित दृष्टिकोण अपनाना होगा। यही तरीका देश की विविधता और जटिलता को सही मायनों में पकड़ सकता है।