राष्ट्रपति संदर्भ पर सुनवाई में कर्नाटक, केंद्र और पश्चिम बंगाल के तर्कों में तीखा मतभेद
सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति संदर्भ मामले की सुनवाई के दौरान कर्नाटक सरकार के वकील ने जोर देकर कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास विधेयकों पर हस्ताक्षर करने में विवेकाधिकार होने का तर्क "मूल रूप से गलत" है। उनका कहना था कि संवैधानिक पदों पर बैठे ये व्यक्ति विधायी प्रक्रिया में बाधा नहीं बन सकते।
वहीं, केंद्र सरकार ने दलील दी कि इस मुद्दे का समाधान न्यायिक हस्तक्षेप से नहीं बल्कि राजनीतिक संवाद से होना चाहिए। केंद्र का तर्क था कि विधेयकों को मंजूरी देने में देरी जैसे मामलों में राजनीतिक प्रक्रिया ही अधिक कारगर हो सकती है।
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दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल सरकार ने यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों को रोके नहीं रख सकते। राज्य ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की कि राज्यपालों द्वारा लंबित रखे गए विधेयकों पर एक स्पष्ट समयसीमा तय की जाए ताकि विधायी कार्य सुचारू रूप से चलता रहे।
इस सुनवाई का सीधा संबंध राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ से है, जिसमें सवाल उठाया गया है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास किसी विधेयक पर हस्ताक्षर करने या उसे लंबित रखने का पूर्ण विवेकाधिकार है। सुप्रीम कोर्ट की यह सुनवाई देश के संवैधानिक ढांचे और विधायी प्रक्रिया के लिए दूरगामी प्रभाव डाल सकती है।
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