सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (10 दिसंबर 2025) को एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि आपराधिक अवमानना की शक्ति न्यायाधीशों के लिए कोई “निजी कवच” नहीं है, जिसे वे आलोचना को दबाने या असहमति को रोकने के लिए उपयोग कर सकें। अदालत ने बॉम्बे हाई कोर्ट के 23 अप्रैल के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें नवी मुंबई की एक महिला को आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराते हुए एक सप्ताह के सरल कारावास की सजा सुनाई गई थी।
महिला ने अपनी हाउसिंग सोसायटी में एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी किया था, जिसमें न्यायाधीशों को “डॉग माफिया” का हिस्सा बताया गया था। हाई कोर्ट ने इस टिप्पणी को न्यायपालिका का अपमान मानते हुए उसे सजा सुनाई थी।
मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने पर, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि अवमानना कानून न्यायालय की संस्थागत गरिमा की रक्षा के लिए है, न कि न्यायाधीशों की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा की ढाल के रूप में कार्य करने के लिए।
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पीठ ने यह भी दर्ज किया कि महिला ने मामले की प्रारंभिक अवस्था से ही बिना किसी शर्त के क्षमा याचना की थी और अपने व्यवहार पर गहरा पछतावा व्यक्त किया था। अदालत ने कहा कि जब किसी व्यक्ति ने ईमानदारी से गलती स्वीकार कर ली हो और सुधार की इच्छा दिखाई हो, तो उसे कठोर दंड देना न्यायोचित नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका आलोचना से परे नहीं है। लोकतंत्र में रचनात्मक आलोचना महत्वपूर्ण है, हालांकि यह गरिमा और सीमाओं के भीतर होनी चाहिए।
अंत में अदालत ने महिला की दोषसिद्धि और एक सप्ताह की जेल की सजा दोनों को रद्द करते हुए उसे पूर्ण राहत प्रदान की।
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