आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में महंगाई केवल आर्थिक या आपूर्ति से जुड़ा मुद्दा नहीं रही, बल्कि यह लोगों के व्यवहार और भावनाओं से भी गहराई से जुड़ गई है। विशेषज्ञों ने हाल ही में “फोमोफ्लेशन” (Fomoflation) नामक एक नए आर्थिक व्यवहार का जिक्र किया है, जो महंगाई की गति को तेज कर रहा है।
‘फोमोफ्लेशन’ दो शब्दों – ‘FOMO’ (Fear of Missing Out) और ‘Inflation’ – से मिलकर बना है। इसका मतलब है कि जब उपभोक्ता इस डर से वस्तुएं या सेवाएं अधिक खरीदने लगते हैं कि भविष्य में वे महंगी हो जाएंगी या उपलब्ध नहीं रहेंगी, तो मांग अचानक बढ़ जाती है। यह बढ़ती मांग बाजार पर दबाव बनाती है, जिससे कीमतें वास्तविक आर्थिक कारणों से अधिक तेजी से बढ़ने लगती हैं।
आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार, यह प्रवृत्ति महामारी के बाद के दौर में अधिक स्पष्ट रूप से सामने आई। लोगों में कमी के डर और अस्थिरता के कारण “जल्दी खरीदो, बाद में पछताओ” जैसी मानसिकता विकसित हुई। इसका असर सिर्फ लग्जरी वस्तुओं पर नहीं, बल्कि आवश्यक चीजों जैसे खाद्य पदार्थ, ईंधन और किराए तक पर पड़ा है।
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फोमोफ्लेशन के चलते खुदरा विक्रेता और कंपनियां भी उपभोक्ताओं के इस डर का फायदा उठाते हुए कीमतों को ऊँचा रखने या बार-बार बढ़ाने की रणनीति अपनाने लगे हैं। इससे बाजार में कृत्रिम महंगाई का माहौल बन जाता है, जो सामान्य आर्थिक संतुलन को बिगाड़ देता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए वित्तीय साक्षरता बढ़ाना, उपभोक्ताओं में तार्किक खरीदारी की प्रवृत्ति लाना और बाजार में पारदर्शिता सुनिश्चित करना आवश्यक है।
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