केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में वन अधिकार कानून (Forest Rights Act), 2006 का दृढ़तापूर्वक बचाव किया है। यह कानून जंगलों पर निर्भर आदिवासी और वन समुदायों के अधिकारों, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान को सुनिश्चित करता है। मंत्रालय ने 2012 के नियमों की वैधता पर चुनौती देने वाली याचिका का कड़ा खंडन किया।
केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्रालय (MoTA) ने सुप्रीम कोर्ट में दायर जवाबी हलफनामे में कहा कि यह कानून केवल भूमि स्वामित्व को नियमित करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य वन समुदायों की गरिमा, आजीविका और सांस्कृतिक पहचान को बहाल करना भी है। मंत्रालय ने यह भी स्पष्ट किया कि 2012 के नियम इस कानून के तहत बनाए गए हैं और विधिक रूप से पूर्णत: वैध हैं।
याचिका में दावा किया गया था कि वन अधिकार कानून और इसके नियमों का टकराव वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और अन्य वन कानूनों के साथ है। इसके जवाब में केंद्र ने कहा कि यह कानून वन्यजीव संरक्षण और अन्य नियमों के साथ संतुलन बनाए रखते हुए आदिवासी समुदायों के मूल अधिकारों को सुनिश्चित करता है।
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MoTA ने कोर्ट को बताया कि वन अधिकार कानून से लाभान्वित होने वाले लाखों लोगों की आजीविका, उनके घर, पारंपरिक जमीन और जंगलों पर उनके अधिकार सुरक्षित रहते हैं। कानून का उद्देश्य वन समुदायों को उनके संसाधनों पर नियंत्रण देना और उन्हें सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से सशक्त बनाना है।
विशेषज्ञों का मानना है कि केंद्र का यह जवाब आदिवासी अधिकारों और वन संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।
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