सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की वैधता पर गंभीर सवाल उठाए हैं, जिसमें मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को तीन महीनों तक हर महीने एक बार ‘तलाक’ कहकर संबंध समाप्त कर सकता है। यह तरीका तत्काल तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिद्दत से अलग है, जिसे कोर्ट ने आठ वर्ष पहले अवैध घोषित कर दिया था।
जस्टिस सूर्यकांत, उज्जल भूयान और एन.के. सिंह की पीठ ने इस प्रक्रिया पर कड़ा रुख अपनाते हुए पूछा—“आधुनिक समाज में यह कैसे अनुमति दी जा सकती है?” अदालत के समक्ष कई याचिकाएं दायर की गई थीं, जिनमें तलाक-ए-हसन को असंवैधानिक बताया गया है।
सुनवाई के दौरान अदालत ने एक मुस्लिम महिला, बेनज़ीर हीना, के मामले में भी दखल दी। याचिकाकर्ता के अनुसार, उनके पति गुलाम अख्तर ने अपने वकील के माध्यम से तलाक दिया और फिर पुनर्विवाह कर लिया। तलाक नोटिस 11 पन्नों का था, लेकिन उस पर पति का हस्ताक्षर नहीं था। वकील की ओर से तलाक की प्रक्रिया पूरी की गई, जिसके कारण महिला अपने बच्चे के स्कूल में प्रवेश के लिए भी संघर्ष कर रही है।
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जब पति की ओर से कहा गया कि यह “इस्लाम में आम प्रथा” है, तब जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा—“क्या यह वास्तव में कोई प्रथा है? नई-नई सोच कैसे विकसित की जा रही है?” अदालत ने कहा कि यदि धार्मिक प्रक्रिया के अनुसार तलाक होना है, तो पूरी प्रक्रिया निर्धारित नियमों के अनुसार होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे के स्कूल का नाम पूछते हुए चिंता जताई कि जब पढ़े-लिखे तबके की महिलाएं भी ऐसे हालात झेल रही हैं, तो कमज़ोर वर्ग की महिलाओं की स्थिति क्या होगी? अदालत ने पति को अगली सुनवाई में पेश होने का आदेश देते हुए कहा—“उसे आकर निष्कपट रूप से उसकी मांगें पूरी करनी चाहिए।”
अदालत ने बेनज़ीर हीना के साहस की सराहना करते हुए कहा कि समाज को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी महिला ऐसी प्रथाओं का शिकार न बने।
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